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कल्याण-यात्रा | १९९ पंचमहावतात्मक धर्म ? दोनों का लक्ष्य एक है मोल-प्राप्ति । फिर दोनों के बाचारमार्ग में इतना अन्तर क्यों ?"
उक्त चर्चाएं जब केशीकुमार श्रमण एवं इन्द्रभूति गौतम के समक्ष आई तो दोनों ने ही परस्पर मिलकर विचार-चर्चा करने का निश्चय किया । गौतम व्यवहारदक्ष एवं विनम्रता की मूर्ति थे। अपने शिष्यों के साथ वे स्वयं ही केशीकुमार के निकट गये । श्रमण केशी ने गौतम का उचित स्वागत-सत्कार किया, उनके मधुरव्यवहार से प्रसन्न होकर कुछ जिज्ञासाएं प्रस्तुत करने की अनुमति मांगी।
गौतम केशी के इस मिलन की चर्चा श्रावस्ती के बाजारों में फैली तो हजारों गृहस्थ तथा अनेक अन्यतीर्षिक साधु भी उत्सुकता व जिज्ञासा-वश वहां आ गये ।।
गौतम की अनुमति लेकर केशीकुमार बोले-"महानुभाव ! महामुनि पावं. नाथ ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया और भगवान् वर्धमान ने पंचशिक्षिक धर्म का । समान ध्येय के लिये चलने वाले साधकों में इस प्रकार की मत-भिन्नता क्यों ? यह वैध, क्या आपके मन को संशय एवं अश्रद्धा से उद्वेलित नहीं करता?"
गोतम-"महामुनि ! धर्मतत्त्व का निर्णय बुद्धि से किया जाता है। जिस युग में जैसी बुद्धि वाले मनुष्य होते हैं उनकी पात्रता देखकर ही धर्म का उपदेश किया जाता है। प्रथम तीर्थंकर के समय मनुष्य वस्तुतत्त्व को समझने में अकुशल
और अन्तिम तीर्थकर के समय में मनुष्य तर्कप्रधान तथा बौद्धिक कुटिलता से युक्त होते हैं, जबकि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय में मनुष्य सरल एवं श्रद्धा-प्रधान ! सरल एवं श्रद्धालुजन चातुर्यामधर्म में ही आचार की पूर्ण शुद्धता रख लेते हैं, किन्तु अकुशल एवं तर्क-कुटिल मानस के लिये आचार को स्पष्टता और नियमों का विस्तार करते हुये पंच महावतिकधर्म की प्ररूपणा की जाती है। अतः धर्म की मूलभूत साधना में कोई भेद व वेंध नहीं है।"
केशी-"भगवान् वर्धमान ने अचेलकधर्म बताया है, जबकि महामुनि पार्श्वनाथ ने सान्तरोत्तर (वर्ण आदि से विशिष्ट एवं मूल्यवान वस्त्र रखने की अनुमति युक्त) धर्म का प्रतिपादन किया है। एक ही कार्य-(उद्देश्य) में प्रवृत्त दोनों में भेद का कारण क्या है ? वेष के इन दो प्रकारों को देखकर क्या आपके मन में कुछ संशय नहीं होता ?"
१ उत्तराध्ययन २३॥१८-१९ २ उत्तराध्ययन, २३ । २३ से २७