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१७६ | वीर्यकर महावीर
श्रमण-श्रमणियों ने आश्चर्य-पूर्वक कामदेव की ओर देखा, कामदेव भगवान के चरणों में श्रद्धावनत था। जीवन के अन्तिम समय में कामदेव ने समता व शांति के साथ साठ दिन का अनशन कर देहत्याग दिया।' ३. श्रमणोपासक चुल्लनीपिता और सुरादेव
भगवान महावीर की धर्म-यात्रा के प्रसंगों में वैसे तो अनेक गृहस्थों ने श्रावकधर्म स्वीकार कर जीवन को कृतार्थ किया, पर जिन कुछ महत्त्वपूर्ण श्रावकों का उल्लेख आगमों में मिलता है, उनमें से आनन्द और कामदेव का प्रसंग पीछे आ चुका है। अन्य धावकों का प्रसंग यहाँ संक्षेप में दिया जा रहा है :
वाणिज्यग्राम में चातुर्मास व्यतीत करके भगवान महावीर वाराणसी के कोष्ठक चत्य में पधारे। चुल्लनीपिता एवं सुरादेव नाम के दो धनाढ्य गृहस्थों ने भगवान् महावीर का उपदेश सुनकर श्रावकधर्म स्वीकार किया । ये दोनों गृहस्थ वाराणसी के प्रमुख और प्रसिद्ध व्यक्ति थे। चुल्लनीपिता ने अपनी सम्पत्ति की मर्यादा की, उसमें आठ कोटि हिरण्य निधान में, आठ कोटि ब्याज में एवं आठ कोटि व्यापार में-- यों कुल चौबीस कोटि हिरण्य के उपरांत सम्पत्ति रखने की तथा आठ गोकुल (प्रत्येक गोकुल में १० हजार गायें) से अधिक पशुधन रखने की मर्यादा की। सुरादेव ने छः-छः कोटि हिरण्य एवं छह गोकुल से अधिक रखने का प्रत्याख्यान किया।
उक्त दोनों श्रमणोपासक यद्यपि आनन्द और कामदेव की भांति ही अडिग श्रद्धा तथा समता के साथ अपने व्रतों एवं श्रावक-धर्म-प्रज्ञप्ति का आचरण कर रहे थे, किन्तु उनके मन में किसी एक-एक वस्तु के प्रति आसक्ति (ममत्व) का बन्धन कुछ गहरा था। समत्व-परीक्षा
एक बार चुल्लनीपिता पौषध करके धर्म-जागरणा कर रहा था कि मध्य रात्रि में एक विकराल पुरुष हाथ में तलवार लिए हुए उसके सामने आया और धमकी देते हुए बोला-"तू जिस धर्म की आराधना में लगा है, वह निरा पाखण्ड है, मेरे कहने से तू इस धर्म को और अपने व्रतों को भंग करना स्वीकार कर ले, अन्यथा मैं तेरे समक्ष अभी तेरे पुत्रों की बात करके उन्हें खोलते हुए तेल में डाल दंगा और उनके रक्त-मांस के छीटों से तेरे शरीर को सींचगा।"
१ उपासकदया । २ बीमा-काल का बगरहवां पातुर्मास वि.पू. ४६४।