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१८० | तीर्षकर महावीर
युक्ति-युक्त है, जिसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पराक्रम आदि कुछ नहीं है, जो कुछ है-वह नियति ही है, अतः तुम श्रमण महावीर की धर्म प्राप्ति का परित्याग कर गौशालक की धर्म-प्राप्ति स्वीकार करो।" ।
कुडकोलिक ने उत्तर दिया- "देवानुप्रिय ! तुम्हारे कथन के अनुसार मंसलि पुत्र गौशालक की धर्म-प्राप्ति ठीक है तो फिर तुम्हें जो दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य बल मादि प्राप्त हुए हैं- क्या वे बिना कुछ पुरुषार्य किये ही मिले होंगे ?"
"हां, बिना कुछ पुरुषार्थ किये ही मिले हैं"-देवता ने कहा।
"तो फिर जिन प्राणियों ने पुरुषार्थ आदि नहीं किया है, उन्हें भी यह देवऋद्धि प्राप्त होनी चाहिए थी । मापके कथन के अनुसार तो जितने भी पुरुषार्थहीन प्राणी हैं, वे सब देव बनने ही चाहिए थे-ऐसा क्यों नहीं हुआ ?' कुंडकोलिक ने प्रति तर्क के साथ कहा।
कुंडकोलिक की निभ्रांत धर्म-श्रद्धा और प्रत्युत्तर-कुशलता के समक्ष देव निरुतर हो गया। उसने देखा-यह जितना दृढ़ श्रद्धालु है, उतना ही गहरा तत्त्वज्ञानी भी है । देव चला गया।
भगवान् महावीर ने अपने श्रमण-समुदाय के समक्ष इस घटना की चर्चा करते हुए कुंडकोलिक को एक आदर्श ताकिक और तत्त्वज्ञ श्रावक बताकर उसकी श्रद्धा की प्रशंसा की।
कुंडकोलिक का शेष जीवन भी अन्य धावकों की तरह धर्म-आराधना में बीता व अंत में समाधि-मरण प्राप्त किया।'
७. पुरुषार्थवाद का उपासक-सालपुत्र
भगवान् महावीर का कर्म-सिद्धान्त वास्तव में पुरुषार्थवाद का ही एक रूप है। भगवान महावीर ने नियति की सत्ता अवश्य मानी है, पर उसमें जो जड़ता (निष्क्रियता) का दोष आ जाता है, उसे दूर करने के लिए पुरुषार्थ का सम्बल लेना भी आवश्यक है। इसीदृष्टि से भगवान् ने मुख्यतः पुरुषार्थ उत्थान, बल-वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम पर अत्यधिक बल दिया है।
भाषीवक आचार्य गौशालक भगवान महावीर के साधना-काल में उनके साथ
१उपासकता, बन्यवन ।