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११६ | तीर्थकर महावीर
धनावह की सरल और पारखी नजरों ने वसुमती को देखा तो उसकी आँखें सजन हो गई-"यह तो दासी नहीं, कोई देवकन्या है । हे भगवान् ! ऐसी शीलवती सुकुमार कन्याओं को भी आज यह दशा हो रही है ? इतना अन्याय ! अत्याचार !! लगता है कौशाम्बी का वैभव अब पाप का पिण्ड बन गया है, लूट-लूट कर बढ़ाया हवा यह साम्राज्य बब शीघ्र ही रसातल में जाने वाला है-इन हजारों दासपासियों की मूक पुकार इस नगरी को भस्मसात कर डालेगी....।"
धनावह का हृदय धू-धू कर उठा । क्षणभर स्तन्ध-सा देखता रहा, वसुमती की आँखों से बरसती सौम्यता में घुली दीनता की कालिमा, मुर्भाया हुआ सुन्दर शिरीष पुष्प-सा कोमल मुख !
धनावह ने दलालों से कहा-"रुको! इस कन्या के साथ जबर्दस्ती मत करो ! अगर यह गणिका के घर नहीं जाना चाहती है तो मैं इसे खरीदता हूं, एक लाव स्वर्णमुद्राएं मैं देता हूँ।"
वसमती धनावह की प्रेम-स्नेह सनी वाणी से आश्वस्त तो हुई, पर वह ठोकरें खा चुकी थी, उसे अनुभव हो गया था-देवता की मूर्ति के पीछे दुष्ट दानव का असली चेहरा छिपा रहता है. नकली चेहरे की चकाचौंध में। अत: उसने पूछा-"पिताजी ! आपके यहाँ मुझे क्या सेवा करनी होगी ?" धनावह की आंखें सजल हो गई-"बेटी ! यह क्या कम सेवा है कि मुझ सन्तानहीन के शून्य घर में तुम सरीखी एक देवकन्या का प्रवेश हो जाय ! मेरा शून्य घर मन्दिर बन जायेगां, अंधेरे में एक दीपक जल उठेगा, बस, मैं तुम्हें अपनी पुत्री के रूप में देखकर ही कुता हूं और कुछ नहीं।'
व्यथा के अगणित घाव छिपाये हुए भी वसुमती का मुख प्रसन्नता से दमक उठा । वह धनावह के घर पर आ गई, और धनावह को पिता की तरह तथा सेठानी मूला को माता की तरह मानकर दिन-रात उनकी सेवा में लगी रहती।
पूछने पर भी जब उसने अपना पुराना नाम व परिचय नहीं बताया तो उसके शील व स्वभाव की शीतलता, सौम्यता देखकर धनावह उसे प्यार से 'चन्दना' कहकर पुकारने लगा।
माश्रयहीन हुई एक राजकन्या दर-दर की ठोकरें खाने के बाद धनावह का स्नेह और पितृ-वात्सल्य पाकर पुनः चम्पकलता की भांति निखार पाने लगी। उसके असीम सौन्दर्य और भावनाशील सहज स्नेह को देखकर मूला सेठानी भी रथिक