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कल्याण-यात्रा | ११ भक्त के हृदय का संदेश भगवान् को मिला और भगवान् महावीर अपने विशाल शिष्य-समुदाय के साथ सिंधु-सौवीर की ओर प्रस्थित हुए।
चंपा से सिंधु-सौवीर प्रदेश बहुत दूर था। एक था भारत के पूर्वांचल में, दूसरा पश्चिमांचल में।
__ मरुभूमि का लंबा प्रवास और संकड़ों श्रमण-श्रमणियों का साथ, साधुजीवन की कठिन भिक्षा-विधि ! इस दुस्सह यात्रा में भगवान् के अनेक शिष्यों को प्राणों से खेलना पड़ा । सिनपल्ली के रेतीले मरुस्थल में कोसों तक बस्ती का नाम-निशान नहीं था। श्रमण क्षुधा-पिपासा से पीड़ित हो गए। किन्तु फिर भी अपने श्रमणजीवन की कठोर मर्यादा से चलित नहीं हुए।
भगवान सुदीर्घ विहार करके वीतभय पत्तन पधारे । अपनी भावना को सफल होते देखकर महाराज उदायन का रोम-रोम नाच उठा। भगवान् की वंदना करके सम्राट् ने प्रार्थना की. "मंते ! आपके दर्शन करके मैं कृतार्थ हुमा हूं, अब संसार त्यागकर दीक्षा लेना चाहता हूं।"
प्रभु महावीर ने कहा-"राजन् ! जहा मुहं-तुम्हारी आत्मा को जिसमें सुख हो, वैसा करो, सत्कार्य में प्रमाद मत करो।"
उदायन का पुत्र था-अभीचिकुमार । राजा ने सोचा-'राजेश्वरी 'नरकेश्वरी' की लोकोक्ति कभी-कभी सच हो जाती है, जिस राज्य को मैं स्वय बंधन
और दलदल समझकर त्याग रहा हूं, उस राज्य-पाश में पुत्र को क्यों फंसाऊँ ? सच्चा पिता पुत्र के लोकोत्तर हित की कामना करता है, क्षणिक लौकिक हित की नहीं। इस प्रकार राजर्षि उदायन ने राजनीति से ऊपर उठकर अध्यात्मदृष्टि से चिन्तन किया । राज्य का उत्तराधिकार अपने भानजे केशीकुमार को सौंपकर वे भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षित हो गए।
भगवान ने भक्त का उद्धार किया, वे उसी भयानक ग्रीष्मऋतु में पुनः विदेह की ओर चले और वाणिज्यग्राम में वर्षावास व्यतीत किया ।
राजर्षि उदायन दीक्षित होकर कठोर तपश्चरण एवं विशुद्ध ध्यान-साधना करने लगे। सुकुमार शरीर तप का कठोर आचरण सह नहीं सका । राजर्षि रुग्ण हो गए । विहार करते हुए एक बार वीतभय नगर में पाए ।
केशीकुमार के मंत्री बड़े दुष्ट थे। उन्होंने राजा के कान भरे-"राजर्षि पुनः गृहस्थाश्रम में आकर राज्य करना चाहते हैं, इसी कारण नगर में आए हैं, संभवतः