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कल्याण-यात्रा | १६१ सचमुच में जन-मानस को विदेह - भाव (अनासक्ति) की एक प्रबल प्रेरणा देता रहा । विदेह देश के घर-घर में वैदेही ( महावीर ) का विदेह संदेश गूंज उठा । '
तप एवं त्याग के शिखरयाती
भगवान् महावीर ने आत्म-साधना के दो मार्ग बताये हैं - आगार-धर्म एवं अनगार-धर्मं । अनगार-धर्म स्वीकार करके साधना-पथ पर बढ़ने वाले कुछ श्रमणोपासकों का जीवन परिचय अगले प्रकरण में दिया जा रहा है, अनगार-धर्म स्वीकार कर साधना - पथ पर बढ़ने वाले हजारों श्रमणों में से एक-दो उत्कृष्ट साधकों का परिचय यहां प्रस्तुत है ।
यद्यपि इन घटनाओं के आरोह-अवरोह भगवान् महावीर के जीवन से कुछ दूर भी चले गए हैं, किंतु पूरे घटना चक्र पर उनकी जीवनदृष्टि और उनके प्रेरणादायी सान्निध्य की छाया व्याप्त है। अतः यहाँ दो उदाहरण प्रस्तुत हैं जो अपने दोनों पक्षों - गृहि एवं साधक जीवन की उत्कृष्टता को एक साथ लिए हुए हैं ।
[ रणवीर क्षमावीर - राजव उदायन ]
भगवान् महावीर का तीर्थंकर - जीवन विश्व को 'बोधि-दान' करने में ही व्यतीत हुआ । वे स्वयं कृत-कृत्य थे, किन्तु जब किसी भव्य हृदय में भावना का वेग उमड़ता देखते तो उसे आत्मा के ऊर्ध्वगामी विकास में प्रेरित करने अपने शारीरिक श्रम, कष्ट एवं पीड़ा की उपेक्षा कर देते । बोधिदान हेतु एक अत्यंत कष्टप्रद तथा सुदीर्घ यात्रा का प्रसंग भगवान् महावीर के जीवन में घटित हुआ, जिसकी भाव- प्रवणता आज भी सजीव-सी है ।
उन दिनों भारत के पश्चिमी अंचल पर- सिंघु-सौवीर आदि देशों पर राजा उदायन ( उद्रायन ) शासन करता था । उदायन अपने युग का प्रताप और महान् शासक था। पहले वह तापस-परम्परा का अनुगामी था, किन्तु उसकी रानी प्रभावती, जो वैशाली गणाध्यक्ष चेटक की पुत्री थी और निर्ग्रन्थ धर्म की उपासिका थी की प्रेरणा से राजा उदायन भी निग्रं न्यधर्म का अनुयायी बन गया था ।
१ इस सन्देश की प्रतिध्वनि विदेह के कोने-कोने में गूंजती रही और एक वर्ष पश्चात् भगवान् महावीर पुनः विदेह के वाणिज्यग्राम में जाये, तब वहाँ का प्रमुख गायापति आनन्द, श्रावक बना, जिसका वर्णन 'भोग के सागर में त्याग का सेतु' शीर्षक में पढ़िए ।
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