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१६८ | तीर्थंकर महावीर
भद्र) को वहाँ नहीं देखकर पूछा - "भंते ! शालिभद्र अनगार कहां हैं ?" भगवाद ने उसे आज की सब घटना सुनाई। सुनते ही वह फूट-फूट कर रोने लगी- "हाय ! मैं कैसी हत-भागिनी ! द्वार पर आये हुए पुत्र को भी नहीं पहचाना और उसे बिना भिक्षा दिये ही लौटा दिया...? मेरा भाग्य सो गया ! मैं कैसी पुण्य-हीन हूं ।" कुछ देर विलाप करने के बाद वह उनके दर्शनों के लिए आतुर हो उठी । भगवान् ने बताया "शालिभद्र और धन्य अनागार आजीवन अनशन - मारणान्तिक संलेखना, संथारे का व्रत लेकर वैभारगिरि पर चले गये हैं ।"
महाराज श्रेणिक तथा भद्रा आदि तपस्वियों के दर्शन करने वैभागिरि पर आये। वहीं अपने पुत्र की अत्यन्त कृश काया देखकर वह विलाप के साथ रो उठी । श्रेणिक ने समझाया - तुम्हारे पुत्र ने तो तपस्या के द्वारा जीवन कृतार्थं कर लिया है, ये न केवल ऐश्वर्य-भोग में ही अद्वितीय थे, किन्तु योग-साधना में भी अद्वितीय सिद्ध हुए, ऐसे पुत्र की माता को तो गौरव अनुभव करना चाहिये - देखो, दोनों तपस्वी समाधिस्थ हैं, कहीं तुम्हारे विलाप से उनको विक्षेप न हो ?
तपोमूर्ति अनगार को वन्दना करके श्रेणिक, भद्रा आदि चले आये ।
भगवाद के धर्म शासन में इस प्रकार त्याग एवं तप के शिखरयात्रियों की एक लम्बी परम्परा चलती रही है। ये गृहि-जीवन में भी श्रेष्ठ और विशिष्ट बनकर रहे और तप-त्याग के पथ पर बढ़े- तब भी उत्कृष्ट और विशिष्ट बनकर ।
इस परम्परा के सिर्फ दो जीवन- प्रसंग यहाँ दिये गये हैं, किन्तु इसी प्रकार महचन्द्र, दशार्णभद्र, प्रसन्नचन्द्र, सुबाहुकुमार, महाबल आदि ने अपार भोगसामग्रियों को तिलांजलि देकर, राज्य और ऐश्वयं का त्याग कर संयम साधना स्वीकार की तथा समत्व की साधना में उत्कृष्ट स्थिति पर पहुंचकर त्याग की शिखरयात्रा पूर्ण की। '
भोग के सागर में त्याग का सेतु [ भगवान् महावीर के प्रमुख उपासक ]
श्रमण महावीर ने साधना - काल के प्रथम वर्षावास में अस्थिक ग्राम में दस स्वप्न देखे थे । उनमें चौथा स्वप्न था - सुरभित कुसुमों की दो सुन्दर मालायें ।
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धन्य शालिभद्र की विस्तृत जीवन-गाथा के लिए — "निवष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग १० " - देखना चाहिए ।