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कल्याण-यात्रा | १६९ उसका फलितार्थ था-महावीर द्वारा दो धर्मो-आगारधर्म एवं अनगारधर्म का प्ररूपण किया जायेगा।
धर्मतीर्थ-प्रवर्तन के समय भगवान महावीर ने धर्म के इन्हीं दो रूपों का प्रतिपादन किया । जो साधक संसार से सर्वथा विरक्त होकर पूर्ण संयम के पथ पर बढ़े, वे अनगार (भिक्षु-श्रमण) धर्म के आराधक बने और जो गृहस्थदशा में रहकर धर्म की यथाशक्य आराधना-उपासना करना चाहते थे, वे आगार-धर्म के अनुसा (श्रावक-उपासक) कहलाये। श्रमणों के लिये पंच महाव्रतरूप अनगार धर्म की प्ररूपणा की और श्रमणोपासकों के लिए पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूपबारह व्रतों का विधान किया।
भगनान् महावीर ने श्रावकधर्म की व्यवस्थित एवं विस्तृत व्याख्या सर्वप्रथम गाथापति आनन्द के समक्ष प्रस्तुत की। उनके तीर्थकर काल की इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना का तथा उनके जीवन में समय-समय पर आये प्रमुख गृहस्थ उपासकों के सम्पर्कों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है१. गायापति आनन्द
भगवान् महावीर विदेहभूमि में विहार करते हुए वाणिज्यग्राम पधारे।' वहाँ पर आनन्द नाम का एक समृद्ध और प्रतिष्टित गृहपति रहता था। उसके पास अपार सम्पत्ति, खेती योग्य विशाल भूमि एवं अगणित पशुधन था । हजारों कर्मकार व दास-दासियां उसके आश्रित थे। उस प्रदेश के कृषकों व व्यापारियों में उसका बड़ा वर्चस्व था। राज-कारण तथा समाज के प्रत्येक कार्य में लोग उसका परामर्श लेते, सहयोग लेते तथा जैसा वह कहता - उसी प्रकार करते । एक प्रकार से आनन्द वाणिज्य-प्रामवासियों के लिये सॉख के समान पथ-प्रदर्शक, खलिहान में रोपी गई खीली (मेढ़ी) के समान आधार-स्तम्भ था। आनन्द की धर्मपत्नी का नाम शिवानन्दा था-वह अत्यन्त रूपवती और पति-भक्तिपरायणा थी। अपने नाम के अनुसार सम्पूर्ण परिवार का शिव और आनन्द करने वाली थी।
भगवान महावीर के आगमन की सूचना पाकर आनन्द को अति प्रसन्नता हुई। उनके दर्शन करने और धर्म-उपदेश सुनने की उत्सुकता जगी। शुद्ध वस्त्र आदि पहनकर अपने मित्रों व सेवकों आदि के साथ पैदल चलकर वह भगवान से समवसरण में पहुंचा। भगवान की विनयपूर्वक वंदना की, प्रदक्षिणा करके धर्मसभा में बैठ गया
१ घटना वर्ष वि. पृ. ४६८