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१६२ / तीर्थकर महावीर
निग्रन्थधर्म का अनुयायी बनने के बाद उदायन ने उसके आदर्शों को जीवन में साकार रूप प्रदान किया । क्षमा (समता) नियन्यधर्म का सार है और यह क्षमा उदायन के जीवन में मूर्तिमान हुई। उसने चंडप्रद्योत जैसे पराक्रमी राजा को पराजित कर बंदी बना लिया था। इससे उसके उद्दाम बाहुबल एवं प्रचड सैन्यबल की धाक पूरे दक्षिण-पश्चिम भारत में जम गई । पर, इस पराक्रम से भी प्रखर पराकम उदायन ने तब दिखाया, जब पyषण पर्व पर उसने चंडप्रद्योत से क्षमा याचना की और उत्तर में उसने अपराधी चंडप्रद्योत को क्षमा मांगते हुए शुद्ध अध्यात्मदृष्टि से क्षमादान कर मुक्त कर दिया।
बंदी चंडप्रद्योत ने कहा-"पयूषण पर आप मुझसे क्षमायाचना कर रहे है, पर मैं तो आपका कंदी हूं, अपराधी हूं, पराधीन की क्षमा याचना कैसी ? किसी को बंधन में बांधकर कैदी बना लेना और फिर उससे क्षमापना करना-यह कैसी क्षमापना? यह कैसी पyषण-पर्वाराधना ?"
चंडप्रद्योत के इसी तीखे व्यंग्य ने विजेता उदायन के धर्मपरायण सरल हृदय को झकझोर डाला, उसे लगा- सचमुच वह विजेता होकर भी अपराधी बन गया है, जो किसी को बंदी बनाकर उसके साथ क्षमापना का नाटक कर रहा है । उदायन ने चंप्रद्योत के बंधन बोल दिये, प्रचंड शत्रु को मुक्त कर दिया। चंडप्रद्योत उदायन की यह सरलता, हृदय की विशालता और क्षमाशीलता से गद्गद होकर गलबाहियाँ मलकर मिला और उसका प्रशंसक बनकर चला गया।
इस घटना से समूचे दक्षिण-पश्चिम भारत में उदायन की शौर्य-गाथा के साथ-साथ आध्यात्मिक तेजस्विता का भी शंखनाद गूंज उठा । ऐसे क्षमाशील, वीर और भव्य भावनाशील भक्त को प्रतिबोध देने भगवान् स्वयं खिचे आए हों तो क्या बाश्चर्य!
. भगवान महावीर उन दिनों चम्पा नगरी में विहार कर रहे थे। सर्वज्ञ प्रभ के शान में प्रतिबिम्बित हुमा उदायन का अध्यात्म-आरोहण । उदायन पौषध में बैठा सोच रहा था-"वे नगर धन्य हैं, जहाँ श्रमण भगवान महावीर का चरण स्पर्श हो रहा है, और भव्य जनता उनके दर्शन कर, उनके उपदेश का श्रवण कर जीवन को सार्थक बना रही है । यदि भगवान महावीर वीतभय नगर में पधारें तो मैं भी उनकी बन्दना करके जीवन को कृतार्थ करूं।"
१ पटना वर्ष नि.पू. ४६६-९५