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साधना के महापच पर | १२७ इसे हम संयोग कहें या नियति की विडम्बना कि उनके साधक जीवन में कष्टों के जो निमित्त मिले वे विचित्र ही थे, वे एकपक्षीय थे। चकि संघर्ष दो के बीच होता है, क्रोध से क्रोध, स्वार्थ से स्वार्थ, लोभ से लोभ, महंकार से अहंकार की टक्कर होती है, पर श्रमण महावीर तो क्रोध, लोभ, स्वार्थ, अहंता, ममता, भय
और वासना से सर्वथा मुक्त थे। उनका मानस समता में लीन और अहिंसा, मैत्री व करुणा की उच्चतम रसानुभूति से प्लावित था। उन पर हिंसक, कर और दुष्ट प्राणियों का हाथ उठना ही नहीं चाहिये था। उनकी अहिंसा इतनी तेजस्वी थी कि क्रूरता उसके समक्ष टिक नहीं सकती थी, पर, फिर भी घटनाएं यह बताती हैं कि उन पर इतने निर्मम प्रहार हुये, इतनी दारुण यातनाएं उनको दी गई, मनुष्य तो क्या, पत्थर भी चूर-चूर हो जाता, पर प्रश्न है कि श्रमण महावीर को इतने कष्ट क्यों झेलने पड़े ? हमारे विचार में इसके दो कारण हो सकते हैं:
१. वे कष्टों को स्वयं निमंत्रण देते थे। यद्यपि कष्ट न साध्य था और न साधन, पर इसलिये कि ऐसे प्रसंगों पर वे स्वयं की तितिक्षा और समता की परीक्षा कर अपने को परखना चाहते थे । साधना, करुणा और समता की धार को और तेज बनाना चाहते थे ताकि पूर्व-बद्ध कर्मों के बन्धन शीघ्रता से कट सकें।
२. उस युग का वातावरण एक तो धमण-विरोधी था। दूसरे, बहुत से लोग श्रमण के परिवेश, आचार और स्वरूप से प्रायः अनभिज्ञ थे। छोटे-छोटे राज्यों में प्रायः सीमाओं के झगड़े और आपसी कलह चलते रहते थे; वे मौनी, ध्यानी तपस्वी साधुओं को देखते ही जब उनका परिचय नहीं पाते तो उन्हें चोर, गुप्तचर और छद्मवेशी शत्र-पक्षीय समझ कर उनको मर्मान्तक कष्ट भी दे डालते । और चकि महावीर आत्मगुप्त (स्वयं का परिचय नहीं देने का संकल्प लिये) थे इसलिये इस प्रकार के प्रसंग उपस्थित होते गये और उनकी एक लम्बी श्रृंखला चल पड़ी।
गरिगत की भाषा में हाँ, तो इस साढ़े बारह वर्ष के साधना-काल के कष्टों और तपःसाधनाओं का लोमहर्षक वर्णन, जो हम पढ़ चुके हैं, उसका आचार्यों ने गणित की भाषा में संक्षिप्त वर्गीकरण यो प्रस्तुत किया है :
जघन्यकोटि के उपसर्ग-कटपूतना का उपसर्ग सबसे कठोर था। मध्यमकोटि के उपसर्ग-संगम द्वारा प्रस्तुत कालचक्र सबसे भयानक था। उत्कृष्टकोटि के उपसर्ग कानों में कीलें (शलाका) ठोकना और निकालना
सबसे दारुण उपसर्ग या।