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१५४ | तीर्थंकर महावीर
काम कर देती है । नन्दीषेण गणिका के मोह जाल में फंसकर भी एक संकल्प के सहारे अपने वैराग्य और श्रमणत्व की स्मृति को सजीव बनाये हुए थे। उन्होंने संकल्प लिया- मैं प्रतिदिन कम-से-कम दस मनुष्यों को प्रतिबोध देकर ही मुंह में अन्न-जल ग्रहण करूंगा । अपने संकल्प के अनुसार नन्दीषेण प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम धर्मोपदेश का कार्य प्रारम्भ करते और जब दस मनुष्य प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा के लिए तैयार हो जाते, तभी वे स्नान-भोजन की प्रवृत्ति में लगते ।
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प्रतिज्ञा का क्रम सतत चलता रहा। एक दिन मध्यान्ह तक यह क्रम पूरा नहीं हो सका, नौ व्यक्ति प्रबोध पा चुके थे पर दसवां व्यक्ति था एक स्वर्णकार । वह तार में तार खींचने की आदत के अनुसार नन्दीषेण को भी तर्क-वितर्क के तार मैं इस प्रकार उलझाता रहा कि न नन्दीषेण प्रसंग को तोड़ सके और न स्वर्णकार ने उनका उपदेश स्वीकार किया । धूप चढ़ चुकी थी, रसोई ठण्डी हो रही थीगणिका ने बार-बार नन्दीषेण को बुलावा भेजा, पर नन्दीषेण भी आते तो कैसे ? प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो पा रही थी। इस विलम्ब से झुंझला कर गणिका स्वयं उन्हें बुलाने आई - " प्राणेश्वर ! चलिये, रसोई ठण्डी हो रही है ।"
नन्दीषण ने कहा- 'क्या करूं, अभी तक दसव मनुष्य समझ ही नहीं पा रहा है।"
गणिका कटाक्षपूर्वक हंसकर बोली - "तो क्या हुआ मेरे देवता ! दसवें स्वयं को ही समझ लो, भर चलो-भोजन ठण्डा हो रहा है।"
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नन्दीषण के मन को एक झटका सा लगा, मानो उसके अन्तश्चक्षु खुल गये, तन्द्रा टूट गई, अन्धकार में एक चमक-सी दिखाई दी - ठीक कहती हो तुमदस स्वयं को ही समझ लू कैसी विडम्बना है यह मेरी कि दस-दस मनुष्यों को प्रतिबोध देने वाला स्वयं अब तक ऊंघ ही रहा हूं ? दूसरो को त्याग के पथ पर प्रेरित करने वाला स्वयं भोग के दलदल में फँसा पड़ा हूं - बस-बस, अब मैं जाग गया, मेरी स्मृति प्रबुद्ध हो गई, मेरे वासना के संस्कार समाप्त हो गये - लो मैं जा रहा हूं उसी पथ पर, जिस पथ से भटक कर यहाँ आ गया था । नन्दीषेण चल पड़े, गणिका स्नेह के आंसू बहाती रह गई; प्रेमभरी पुकार करती ही रह गई । नन्दीषेण प्रबुद्ध हो गये और सीधे भगवान् महावीर के पास पहुंचे।
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"प्रभो ! मैं भटक गया था, प्रमाद और मोह के नशे में मेरी चेतना लुप्त
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हो गई थी । प्रभो ! पुनः मुझे अपनी शरण में लीजिये ! खोई हुई अमूल्य चारित्रनिधि पुन: प्राप्त करने का मार्ग बताइये । "