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१५८ | तीर्थकर महावीर
प्रभु की वाणी द्वारा इस विचित्र रहस्य को सुनकर सभा चकित-सी रह गई। ऋषभदत्त और देवानन्दा को जहां पर आश्चर्य हुआ, वहां अत्यन्त हर्ष और गौरव भी उनकी रग-रग में उमड़ आया । तीर्थकर महावीर जैसे पुत्र-रत्न को पाकर कौन माता-पिता अपने को भाग्यशाली नहीं समझेगा? ऋषभदत्त और देवानन्दा ने इस गौरव के अनुरूप ही अपना अगला कदम उठाया-प्रभु द्वारा उपदिष्ट श्रमण धर्म को स्वीकार कर दोनों ही प्रवजित हो गये । ऋषभदत्त गणघरों के एवं देवानन्दा मार्या चन्दनबाला के सानिध्य में अध्ययन एव तपःसाधना द्वारा विदेह-साधना में संलग्न हो गये।
यहाँ पर ध्यान देने की बात है कि भगवान् महावीर का धर्म-संघ समता और समानता का जीता-जागता तीर्थ प्रतीत होता है। ऋषभदत्त को दीक्षित होते ही गणधरों के सानिध्य में रख दिया गया और देवानन्दा, जो भगवान की माग होने का गौरव पा चुकी थी, उसे भी आर्या चन्दना के नेतृत्व में रखना-पूर्वसम्बन्धों की विस्मृति का, गुण-ज्येष्ठ (रत्नाधिक) की श्रेष्टता का एक अनुपम उदाहरण है।
ब्राह्मणकुंड के पश्चिम में ही भगवान महावीर की जन्म भूमि थी-क्षत्रियकुस्पाम । अज्ञात रूप में ही पुत्र-दर्शन से जहाँ देवानन्दा का रोमोद्गम हुआ, वहाँ आज वीर-पुत्र के चरण-स्पर्श से भत्रिय-कुंड की भूमि का कण-कण पुलकित हो उठा हो तो क्या आश्चर्य की बात ।' आज त्रिशला यदि विद्यमान होती और भगवान् महावीर को इस अनन्त ऐश्वर्य-सम्पन्न स्थिति में देखती तो शायद मरुदेवी की भांति हर्ष और मानन्द की चरम स्थिति का नया उदाहरण प्रस्तुत कर देती । पर वह तो भगवान महावीर की प्रवज्या के पूर्व ही स्वर्गवासिनी बन गई थी। अब क्षत्रियकुंड का शासन-सूत्र नन्दीवर्धन सभाल रहे थे।
नन्दीवर्धन ने प्रभु के आगमन पर नगरी को नववधू की भांति सजा दिया, घर-घर में मंगल-दीप जलाकर सुगहिणियों ने प्रभु की आरती उतारी और सर्वत्र उल्लास का अभूतपूर्व वातावरण छा गया। भगवान महावीर की पुत्री प्रियदर्शना और दामाद जमालि भी प्रभु के दर्शन करने चले । धर्मसभा में पूरा क्षत्रिय कुरग्राम उपस्थित हो गया। शायद प्रभु का यह प्रथम उपदेश था-अपनी जन्म-भूमि में। विदेह-पुत्र की विदेह-भावना स्वर के प्रत्येक मालाप में अनुगु जित हो रही थी। जिसने सुना, उसका हृदय आन्दोलित हुए बिना नहीं रहा था। प्रभु की प्रथम
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साल उधान भनियकुबीर साह्मणकुंड के बीच में था, भगवान् महावीर यहीं ठहरे थे, जमालि वहीं दर्शनार्थ आया।