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कल्याण-यात्रा | १५३ नंदीषण को देखकर उपहास के स्वर में बोली-महाराज"! हमें तो धर्मलाभ नहीं, अर्थलाम चाहिये । धर्मलाभ करना हो तो किसी बनिये के घर में जाइये-गणिका के घर में तो पहले 'अर्थलाभ' दिया जाता है--" गणिका की हंसी में एक कड़ मा तीखापन था, जिसने मुनि के सरल मन को बींध डाला।
उसके उपहास ने मुनि की सुप्त अस्मिता को जगा दिया। यह तुच्छ गणिका मुझे दीन-हीन भिखमंगा समझ रही है, इसे पता नहीं, मैं महाराज श्रेणिक का पुत्र हूं। महान ऋद्धि-सम्पन्न तपस्वी हूं ! मुनि आवेश में मा गये। उन्होंने अपने तपोबल का चमत्कार दिखाने हेतु एक हाथ आकाश की ओर उठाया-बस, देखते-हीदेखते आंगन में रत्नों का ढेर लग गया। "वस मिल गया अर्थलाभ ?" मुनि ने कहा।
गणिका स्तब्ध रह गई, तपस्वी की दिव्य तपःऋद्धि देखकर वह क्षण भर के लिये संभ्रमित-सी हो गई।
नंदीषेण बिना भिक्षा लिये लौटने लगे, गणिका हाव-भाव करती हुई रास्ता रोककर खड़ी हो गई-"महाराज! यह रत्नों का ढेर लगा कर अब आप कहाँ जा रहे हैं ? धर्मलाभ से अर्थलाभ किया तो अब अर्थलाभ से प्राप्त भोगलाभ को भी प्राप्त कीजिये । मैं आपकी चरण-सेविका सर्वात्मना समर्पित हूं-मेरा सुकुमार सौन्दर्य आपके अमृत तनस्पर्श को पाकर कृत्य-कृत्य हो जायेगा । प्राणेश्वर ! मेरे प्रणयाकुल हृदय को लात मार अब आप नहीं जा सकते"-गणिका ने कामाकुल भुजाएं फैला कर मुनि का मार्ग रोक दिया। ऐसा लग रहा था मानो - उसकी मांसल भुजाओं से वासना की ज्वालाए निकल-निकल कर वैराग्य के हिमाद्रि को पिघलाने का प्रयत्न कर रही हों।
एक दिन जो वासना का ज्वार, मोह का संस्कार कठोर तपश्चरण से आवृत्त हो गया था, भाग राख से ढक गई थी, विरक्ति की शीतल लहरों से वासना का सांप ठिठुर कर मछित हो गया था, मगर माज एक अहंकारोद्दीप्त तेज से आग पुनः प्रज्वलित हो उठी, मूछित साप मोहाकुल वातावरण की ऊष्मा से पुन: फुफकारने लग गया, मुनि नंदीषेण गणिका के स्नेहपाश में फंस गये। धर्मलाभ कहकर आने वाला तपस्वी 'अर्थलाभ' में अटका, 'अर्थलाम' से 'मोगलाम' के दलदल में फंसा और अन्त में अलाभ की खाई में गिर गया और सब कुछ हार गया।
रात्रि के घने अन्धकार में नन्हें-से जुगन का टिमटिमाना भले ही कोई महत्व न रखता हो, पर कभी-कभी प्रकार की वह मीण रेखा भी दिव्यज्योति-शिवा का