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१४ | तीर्थकर महावीर समझता कि मुझे ऐसा करना पड़ रहा है, किन्तु प्रसन्नता और आत्मीयभाव के साथ वह कहता "इच्छामि भंते ! भंते ! मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं।"
अनुशासन के नाम पर व्यक्ति की इच्छा, भावना या स्वतन्त्रता की हत्या वहां नहीं होती थी। तभी तो हम भगवान महावीर के धर्मसंघ को आध्यात्मिक अनुशासन का (मात्मानुशासन) का एक विकसित और सर्वोत्कृष्ट आदर्श मान सकते हैं।
जन-जन को बोधिदान
[ १. मेधकुमार को बोधिवान ] तीर्थकर महावीर ने गणतन्त्र-पद्धति पर विशाल धनसंघ की स्थापना करके उस युग में एक विस्मयजनक उदाहरण प्रस्तुत किया था। लोगों की आम धारणा थी कि जैसे सिंह वन में अकेला स्वेच्छापूर्वक विहार करता है, वैसे ही साधक अकेले स्वेच्छया भ्रमणशील होते हैं। सिंहों का समूह नहीं होता, साधकों का संघ नहीं होता। वैदिक परम्परा के हजारों तापस व संन्यासी उस युग में विद्यमान थे, किन्तु किसी ने संघ की विधिवत् स्थापना की हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। और तो क्या, तीर्थकर पार्श्वनाथ की परम्परा के भी अनेक श्रमण विविध समूहों में इतस्ततः जनपदों में विचरते थे, किन्तु उनका भी कोई सुव्यवस्थित एक संघ नहीं था। इस दृष्टि से भगवान महावीर द्वारा धर्मसंघ की स्थापना जनता की दृष्टि में एक अद्भुत और नई घटना थी। साथ ही उसकी विनयप्रधान एवं आत्मानुशासन की आधारभूमि लोगों में और भी बाश्चर्यजनक थी। उस धर्मसंघ में जब स्त्रियों को भी पुरुषों के समान स्थान, सम्मान और ज्ञान का अधिकार मिला, तो संभवतः युग-चेतना में एक नई क्रान्ति मच गई होगी । आर्या चन्दनबाला के नेतृत्व में जब अनेक राज-रानियां, राजकुमारिया और सद्गृहणियाँ दीक्षित होकर बात्म-साधना के कठोर मार्ग पर अग्रसर होने लगी तो चारों ओर सहज ही एक नया वातावरण बना, नारी जाति में ही नहीं, किन्तु पुरुष वर्ग में भी तीर्थंकर महावीर के इस समता-मूलक शासन की ओर भाकर्षण बढ़ा, आत्म-साधना की भावना प्रखर होने लगी और वे इस मोर खिचे-खिचे भाने लगे।
धर्म-संघ की स्थापना करके भगवान महावीर ने सर्वप्रथम राजगृह की बोर प्रस्थान किया।