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१४८ | तीर्थकर महावीर भाषात भी लग जाता । मेघ को इस निद्रा-विक्षेप और पदाघात से बड़ी खिन्नता अनुभव हुई। आज दीक्षा की प्रथमरात्रि में ही यह अपशकुन ! आज ही सिर मुंडाया और माज ही ओले पड़े । मेषकुमार का मन व्यथा से भर गया । आँखों की नींद उड़ गई, वह जगता रहा, पर अन्तश्चेतना मूच्छित होने लग गई। उसकी चेतना पूर्वजीवन की स्मृतियों में खो गई, आत्म-चेतना विस्मृति में डूब गई। वह सोचने लगा"मैं जब राजकुमार था, तो सब लोग मेरा आदर करते थे, भाज यहाँ भयंकर अनादर हो रहा है। मैं मखमल की कोमल शय्या पर सोता था-आज एक ही वस्त्र बिछाकर कठोर भूमि पर सोना पड़ा है। तब मैं कितनी शान्ति से सोता था, मेरा शयनकक्ष कितना मनोहर, विशाल, शान्त और सुखद था। आज रात में कितनी अशान्ति है ? सोने का यह स्थान कितना छोटा, सिर्फ ढाई गज भर । कितना भीड़भरा, संकुल
और आखिर में, सबके पैरों की ठोकरें खानी पड़ रही हैं । यह श्रमण-जीवन तो बड़ा ही रूखा, नीरस, कष्टमय और उपेक्षित-सा जीवन है । मैं जीवनभर कैसे इन कठोर नियमों को निभा सकूगा-कैसे हमेशा रातभर जागता रहूंगा और दिनभर भी । बाप रे ! मुझ से नहीं चल सकेगा, यह निरन्तर जागरण ! जब सुख से सोने को भी नहीं मिला तो मैं क्या खाक साधना करूंगा, क्या स्वाध्याय और अध्ययन करूंगा ?"-पूर्व-संस्कारों की स्मृति ने मेघ को आत्म-विस्मृति के गर्त में डुबो दिया। उसकी बाह्य जागृति ने आत्मा पर सुषुप्ति का आवरण डाल दिया। वह रातभर जागता रहा। पर उसकी आत्मा सो रही थी, विकल्प उठते गये, संकल्प इबते चले गये ! उसने निश्चय कर लिया- "चाहे कुछ भी हो, मैं प्रातःकाल भगवान् महावीर से अनुमति लेकर पुनः अपने घर लौट जाऊंगा।"
मानसिक व्यथा और विकल्पों के भंवर में डूबते-उतराते जैसे-तैसे रात्रि व्यतीत की । सूर्योदय के समय वह भगवान् महावीर के चरणों में उपस्थित हुआ।
अन्तद्रष्टा प्रभु ने कहा-"मेघ ! कल तुम्हारा मुख प्रसन्नता से दीप्त था, आज चिन्ता से म्लान हो रहा है । कल तुम्हारी आँखों में आत्मजागृति का तेज था, आज विस्मृति की निद्रा व ऊँघ छाई हुई है । तुम्हारी ऊर्ध्वमुखी चेतना का प्रवाह आज अधोमुखी हो रहा है-तुम विकल्पों के जाल में फंस गये हो। कल तुमने उत्साह के साथ विजय के लिये चरण बढ़ाया था, बाज मणिक कष्ट से पीड़ित हो. कर वापस लौट जाना चाहते हो? क्या यह ठीक है?"
___ "प्रभो! आप सत्य कह रहे हैं ? रात्रि में सचमुच ही मेरी मनोदशा बदल गई है । श्रमण-जीवन की कष्टसाध्य चर्या मेरे लिये दुःशक्य है प्रभु !'
"मेष ! तुम भूल रहे हो। एक तुच्छ और क्षणिक वेदना ने तुम्हारे चैतन्य