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१४६ | तीर्थकर महावीर महापथ पर बढ़ना चाहता हूं और पाना चाहता हूँ उस अक्षय, अनन्त आनन्द को, जिस आनन्द को, 'जिस भात्मवैभव को काल का क्रूर प्रवाह कमी लुप्त नहीं कर सकता।"
मेषकुमार की अनर्जागृति में जो वेग था, उसकी भावना में जो तीव्रता थी, प्रभु महावीर ने उसका स्वागत किया-"देवानुप्रिय ! जिस मार्ग का अनुसरण करने से तुम्हारी आत्मा को सुख की प्राप्ति हो, उस कार्य में विलम्ब मत करो।"
प्रभु को स्वीकृति पाकर मेषकुमार अपने माता-पिता के पास पहुंचा। प्रभु की वाणी की दिव्यता, आत्म-जागृति की प्रेरणा और संसार त्याग कर श्रमण बनने की भावना-एक ही सांस में उसने व्यक्त कर डाली । राजकुमार मेघ की बातें सुनते ही महाराज श्रेणिक दिग्मूढ़-से रह गये, रानी धारिणी मर्माहत-सी हो गईदोनों की आंखों में अनु-प्रवाह उमड़ पड़ा। मोह, मोह को बांधता है, निर्मोह को मोह का तीव्रबंधन भी जकड़ कर नहीं रख सकता। माता-पिता का स्नेह, वात्सल्य और मोह-मेषकुमार को रोक नहीं सके। राज-वैभव का प्रलोभन और यौवन-सुख की लालसा तो उसे धूल से भी असार लगने लगी। श्रेणिक और धारिणी के अनेक तर्कवितर्क से जब मेषकुमार की भाव-चेतना रद्ध नहीं हो सकी तो हारकर धारिणी ने एक आखिरी प्रस्ताव रखा-'बेटा मेघ ! तुम मेरे अत्यन्त प्रिय पुत्र हो, आंखों के तारे और कलेजे की कोर हो, मेरी सब बातें ठकराते जा रहे हो, तो एक आखिरी बात तो मान लो, कुछ तो मेरा मन रखो।"
मेष-"मा ! क्या चाहती हो तुम? मैं श्रमण बनेगा, अपने निश्चय को कभी नहीं बदल सकता, बाकी जैसा तुम चाहोगी वैसा करूंगा।" पारिणी की आखें बरस पड़ी। जो बात कहना चाहती थी, उसे तो पहले ही उसने काट दिया । भरे दिल से उसने कहा-"खर ! मैं तुम्हें राजसिंहासन पर बैठा देखना चाहती हूं, भले ही एकदिन के लिए । राजरानी का गौरव मुझे प्राप्त है, पर मैं तुम-जैसे सुयोग्य पुत्र को पाकर ' राजमाता' का गौरवपूर्ण सम्बोधन भी सुनना चाहती हूं।"
"माताजी ! ठीक है ! मैं आपकी बाजा का पालन करूंगा। सिर्फ एक दिन के लिए मगध के राजसिंहासन पर बैटना मुझे स्वीकार है।" मेषकुमार ने विनम्रता से कहा, पर उसके हर शब्द में दृढ़ता और विरक्ति की गूज थी।
रानी के प्रस्तावानुसार महाराज श्रेणिक ने मेषकुमार का राज्याभिषेक किया, एकदिन के लिये पूरे राज्य में मेषकुमार के शासन की उद्घोषणा कर दी
१ महासुदं देवासुप्पिया ! मा परिबंध करेह !