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१५० | तीर्थकर महावीर
"कुछ समय बाद दावानल शान्त हुमा । अतीत की स्मृति से तुमने लाभ उठाया, भविष्य को निरापद बनाने के लिए तुम समूचे हस्ति-परिवार के साथ एक विशाल हस्तिमण्डल बनाने में जुट गये। तुमने दूर-दूर तक के वृक्ष-वनस्पति उखाड़ कर साफ कर दिये । तुम निर्भय हो गये कि अब कभी वन में दावानल लगे भी तो उसकी आंच तुम तक नहीं पहुंच सकेगी।
"कुछ समय बाद पुनः वन में आग भड़क उठी । तुम सावधान थे ही, शीघ्र ही अपने यूथ के साथ उस मण्डल में आ गये । वन के छोटे-मोटे असंख्य पशु-प्राणी भाग-भाग कर उसी मण्डल में आकर आश्रय लेने लगे। तुमने भी उसारतापूर्वक सबको आश्रय दिया। संकट के समय सब अपना वैर भूल गये । सिंह और हिरन, लोमड़ी और खरगोश, सांप और नेवले यों परस्पर जन्मजात शत्र जीव भी अपनीअपनी जान लेकर यहां आकर एक साथ बैठ गये। मण्डल खचाखच भर गया, पर रखने को भी खाली स्थान नहीं रहा। उस समय शरीर खुजलाने के लिये तुमने पर ऊंचा उठाया। वापस जब पैर को नीचे रखने लगे तो तुमने देखा-उस खाली स्थान में एक खरगोश आकर दुबका बैठा है। तुम्हारे मन में अनुकम्पा की लहर उठी, करुणा की धारा उमड़ी, अगर मैंने पैर रख दिया तो इस नन्ही-सी जान का कमर निकल जायेगा। अनुकम्पा से द्रवित हो तुमने अपना एक पैर ऊपर ही रोके रखा और तीन पैर पर ही खड़े रहे।
___ "दो दिन-रात बीत गये । तीसरे दिन दावानल शान्त हुआ । वनचर पशु मण्डल से निकलकर जाने लगे, खरगोश भी वहां से निकला, स्थान खाली होने पर तुमने पर पृथ्वी पर रखना चाहा। जैसे ही पैर नीचे किया, तुम अपना सन्तुलन नहीं संभाल सके, जैसे बिजली के आघात से रजतगिरि का शिखर टूट पड़ा हो, वैसे ही तुम तत्क्षण धराशायी हो गये। घेदना के उन भयानक भणों में भी तुम अपने को शान्त करने का प्रयत्न कर रहे थे। तुम अपने आप में प्रसन्नता का अनु. भव कर रहे थे कि अपना बलिदान करके भी मैंने एक जीव की रक्षा की है। उस अनुकम्पाजनित प्रसन्नतानुभूति के कारण तुम मृत्यु के क्षण में भी शान्त पे, शान्ति की अनुभूति के साथ प्राण-त्याग कर तुम यहाँ मगधपति श्रेणिक के पुत्र एवं धारिणी देवी के आत्मज बने हो।"
भगवान महावीर की वाणी सुनते-सुनते मेघ के सामने पूर्वभव की घटनाएं साकार हो गई। उसकी स्मृति में घटनाएं छविमान-सी हो उठीं-वह अपने चिंतन में गहरा लीन हो गया। तभी प्रभु ने उद्बोधित करते हुये कहा-मेष ! नियंचयोनि में अब तुम्हें न सम्यग्दर्शन प्राप्त था, न ज्ञान-चेतना इतनी विकसित थी और