________________
१३६ | तीर्षकर महावीर हो गये तो संकल्प को साकार होने में क्या विलम्ब ? वे अपने बन्धुषों को कहने के लिए भी वापस जाना नहीं चाहते थे, पीछे खड़े ५०० शिष्यों से भी कुछ पूछना नहीं चाहते थे, चूकि पूछना, परामर्श लेना और रुकना-यह तो मन की दुर्बलता है, प्रज्ञा की अपूर्णता है, और है अपने आप के प्रति अविश्वास । अपनी सत्यप्रज्ञा के प्रति विकल्प । अपने मनोबल के प्रति अनास्था । गौतम इन सब विकल्पों से, अविश्वास-अनास्था से मुक्त हो प्रभु के चरणों में आ गये, सत्योन्मुखी प्रज्ञा प्रखर हो गई, श्रद्धा का वेग उमड़ पड़ा। क्षणभर का विलम्ब भी असह्य था। वे बोले-"प्रभो ! मैंने सत्य का अनुभव कर लिया है, मेरा मन सत्य और श्रद्धा से, प्रज्ञा और अनुभूति से बाप्लावित हो उठा है, मुझे अपना शिष्य बनाइये।"
ज्ञान के अमरपिपासु, सत्य के सबलजिज्ञासु इन्द्रभूति ने महावीर की शिष्यता स्वीकार करली । उनके अनुगामी १०० छात्र थे, वे भी प्रभु के चरणों में दीक्षित हो गये।
श्रमण नेता महावीर के पास इन्द्रमति के दीक्षित होने का समाचार जैसे ही यज्ञशाला में प्रतीक्षारत विद्वन्मण्डली में पहुंचा, सब हतप्रभ से रह गये । उन्हें लगा, जैसे विजययात्रा पर बढ़ती हुई सेना का सेनापति ही शत्र के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुका है, सब नायकविहीन सेना को भांति अपने को अनुभव करने लगे। तभी इन्द्रभूति के लषुभ्राता अग्निभूति अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर की धर्म परिषद् की ओर बढ़े- "मैं महावीर को पराजित करूंगा और अपने ज्येष्ठ बन्धु को उनके जाल से मुक्त कराकर लाऊंगा।"
अग्निभूति द्वारा उच्चरित प्रतिज्ञा पर ब्राह्मण वर्ग ने तुमुल हर्षध्वनि की। हजारों दर्शक कुतूहल पूर्वक देख रहे थे, एक दूसरे से संशय की भाषा में पूछ रहे घे-"अग्निभूति भाई को मुक्त कराने जा रहे हैं या स्वयं महावीर के शिष्य बनने ? जानते हो, श्रमण नेता महावीर साधारण पुरुष नहीं हैं। उनकी वाणी में क्या ओज है ! क्या बाकर्षण है ! एक-एक शब्द चुम्बक है। प्रत्येक शब्द में आत्मा की अनुभूति बोल रही है ? इन्द्रभूति तार्किक थे, विद्वान थे, शब्दज्ञानी थे, पर महावीर तो आत्मज्ञानी है, लगता है बग्निभूति का भी वही हाल होगा"-जनभाषा के ये शब्द अग्निभूति के कानों तक पहुंचे, बस, मार्ग में ही उनका मन भी डोल गया, संशयाकुल हो गया, मात्मविश्वास हिल गया। जब तक वे भगवान महावीर के समवसरण तक पहुंचे, तब तक तो उनका हृदय भीतर से महाबीर के चरणों में समर्पित होने को भाकुल हो उठा। फिर भी अपने तकंबल से महावीर को परास्त करने का संकल्प लिये वे समवसरण में उपस्थित हुए। महावीर की मैत्री भरी आंखों ने अग्निभूति के अहंकार को