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कल्याण-पामा | १५ अब तो इन्द्रभूति के पैरों के नीचे से धरती खिसक गई। अपने गुप्त-सन्देह को आज तक किसी के समक्ष प्रकट नहीं किया था, माज महावीर ने उसे सहज रूप में उद्घाटित कर दिया, इस विशाल जनसमूह के समक्ष-? पाश्चर्य में डूबे के अपने आप से जैसे पूछ रहे हैं क्या सचमुच ही महावीर सर्वज्ञ है ? अन्यथा मेरे मन की गूढ़ पहेली वे कैसे पकड़ पाते-?"
तभी महावीर ने इन्द्रभूति को पुनः सम्बोधित किया-"इन्द्रभूति ! जीव के अस्तित्व के विषय में सन्देह प्रकट करना अपनी ही सत्ता में सन्देह प्रकट करना है। भीतर में जो 'मैं' की अनुभूति है, जो इस समस्त गतिचक्र का संचालक है, क्या तुम उस 'अहं' का अनुभव नहीं कर रहे हो ? 'अहं' का बोष ही जीव की सत्ता का बोध है, जीवसत्ता का बोध ही यात्मतत्व का बोध है, बात्मा अतीन्द्रिय तत्व है, तुम उसे इन्द्रियों से देखने की चेष्टा मत करो, अतीन्द्रिय ज्ञान से अनुभव करो, तुम्हें स्पष्ट अनुभव होगा-?"
इन्द्रभूति का मस्तक आज स्वयं विनत हो रहा था। उन्हें लगा-महावीर की वाणी में न केवल तर्क का बल है, किन्तु भात्मा की अनुभूति है । आत्मानुभूति पूर्ण उनकी वाणी इन्द्रभूति की आत्मा को स्पर्श कर गई । उनका सदेह दूर हो गया, अहंकार विलीन हो गया। वे विनयपूर्ण स्वर में बोले-"प्रभो ! आज मेरा अन्यिभेद हो गया, मुझे आज स्वयं अपने अस्तित्व की अनुभूति-सी हो रही है। मेरे भ्रम के समस्त आवरण आज दूर हट गये, आप मेरे मार्गदर्शक हैं, मैं आपको अपना गुरु स्वीकार करता हूं, मुझं अपनी शरण में लीजिये, और अपनी आत्मानुभूतियों से मुझं भी आत्म-साक्षात्कार का मार्ग बताइये।"
प्रभु ने मृदुस्वर में कहा-"इन्द्रभूति ! तत्व को तर्क से समझो, अनुभव से समझो, और फिर हृदय की सच्चाई से स्वीकार करो। चूकि तुम स्वयं विज्ञ हो, इसलिए तुम्हें अधिक उपदेश की अपेक्षा नहीं है।"
महावीर की वाणी में जितनी गहरी अनुभूति थी, उतना ही गहरा था अनाग्रह । वे सत्य को शब्दजाल से मुक्त कर उसके असली रूप को प्रकट करते थे, और फिर भी उसे स्वीकार कराने का कोई आग्रह नहीं। इच्छायोग उनका प्रमुख दर्शन था, 'अहासूह' यही उनका प्रचार-सूत्र था।
इन्द्रभूति की जिज्ञासा शान्त हो गई, उन्हें प्रकाश का दर्शन हो गया, अमृत का स्पर्ण मिल गया, बबवेक्षण पर भी रुक नहीं सकते थे। जब विकल्प समाप्त