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१४० | तीर्थकर महावीर विरुख जो जन-चेतना भीतर-ही-भीतर प्रबुद्ध हो रही थी, बाह्मणवाद के घेरे में अब. रुद विकास के द्वार खोलने को उत्सुक थी, बल्लमखुल्ला महावीर की धर्म-सभा में आने लगी, साथ ही अनेक अध्यात्म प्रेमी आत्माएं जो साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ना चाहती थीं, परन्तु किसी मार्गदर्शक के अभाव में वे प्रतीक्षारत थीं, उन्हें लगा, उनके लिये अंधकारपूर्ण कालरात्रि का अंधकार छंट गया है, एक आलोकपुंज दिव्य भास्कर उदित हो गया है । और उसके निर्मल प्रकाश में साधना का पथ प्रणम्त हो रहा है। उनमें से अनेक प्रबुद्ध आत्माएं श्रमण भगवान् महावीर की प्रथम धर्मपरिषद में उपस्थित हुई और वे भी प्रभु का प्रथम धर्मोपदेश सुन कर अपनी आत्मशक्ति एवं मनोबल के अनुसार श्रमणधर्म या श्रावकधर्म को स्वीकार करने लगीं। राजकुमारी चन्दनबाला, जो कौशाम्बी में भगवान् महावीर के धर्मतीर्थ-प्रवर्तन की प्रतीक्षा कर रही थी। जब उसने भगवान के केवलज्ञान प्राप्त करने और मध्यम पावा में प्रथम समवसरण का संवाद सुना तो उसके हृदय में वैराग्य हिलोरें लेने लगा। वह शीघ्रता के साथ महावीर के दर्शनों के लिये निकल पड़ी। उसके साथ अनेक प्रबुद्ध नारियां भी भगवान महावीर की शिष्याएं बनने को आतुर थीं, वे भी आई और उपदेश सुनकर उनमें से अनेकों ने श्रमणधर्म स्वीकार किया, अनेकों ने गहस्थधर्म की मर्यादाएं अपनाई। इस प्रकार मध्यमा के प्रथम समवसरण में ही भगवान के शिष्य समुदाय के चार वर्ग बन गये-श्रमण जीवन के कठोर व्रतों (पांच महाव्रतों) को ग्रहण करने वाले नर-नारी श्रमण एवं श्रमणी कहलाये। जिन्होंने अपनी आत्मशक्ति एवं मनोबल को कुछ कमजोर पाया, वे गृहस्थधर्म योग्य नियमों एवं मर्यादाओं (बारह व्रतों) को ग्रहण कर श्रमणोपासक एवं श्रमणोपासिका (श्रावक-श्राविका) के रूप में भगवान् के धर्म संघ में सम्मिलित हुये।
भगवान महावीर चंकि बचपन से ही गणतंत्रीय वातावरण में पले थे । संघीय राज्य-व्यवस्था के संस्कार उनके रक्त में थे और अहिंसा एवं समता की दृष्टि से यही व्यवस्था उपयुक्त भी थी, अतः उन्होंने अपने शिष्यपरिवार को 'धर्मतीर्थ' अर्थात् 'धर्म संघ' की संज्ञा दी। और उसे चार समुदाय में बांट दिया-श्रमण श्रमणी, भावक. श्राविका ।
यह एक ध्यान देने की बात है कि भगवान महावीर ने धर्म-संघ की स्थापना तो की, हजारों व्यक्तियों को दीक्षा भी दी, पर दीक्षा देकर उनकी शिक्षा और व्यवस्था का भार अपने हाथों में नहीं रखा, एक प्रकार से कहा जा सकता है कि धर्म-संघ की स्थापना कर संघ की व्यवस्था, शिक्षा व अनुशासन का दायित्व उन्होंने