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१२६ | तीपंकर महावीर होगी, वह मिट्टी सोने से भी मूल्यवान होगी, जिस पर उकडू आसन बैठे महाश्रमण महावीर ध्यान की उच्चतम श्रेणी को पार करते हुए अन्तश्चेतना के विराट् आलोक से दीप्त हो रहे थे । वैशाख शुक्ला दशमी का वह पावन दिन और वह मंगलमय चतुर्थ प्रहर । उधर सूर्य थक कर पश्चिम की शरण में जा रहा था, और उधर एक दिव्य आलोकपुज, कभी अस्त नहीं होने वाला ज्ञान-सूर्य उदित हो रहा था । प्रकृति के प्रकाश की चादर सिमट रही थी, और इधर अनन्त दिव्य प्रकाश-किरणें बिखर रही थीं। चार घनघाति कर्मों का क्षय कर श्रमण महावीर आज सच्चे अर्थ में, भाव रूप में भगवान बन रहे थे। केवलज्ञान और केवलदर्शन से उनकी आत्मा आलोकित हो उठी। समस्त आवरण छंट गये, अंधकार नष्ट हो गया और दिवसांत में एक अभिनव सूर्य अनन्त-अनन्त ज्ञानरश्मियां बिखेरने लगा। उनकी चेतना सर्वथा अनावृत हो गई । जगत के समस्त द्रव्य एवं पर्याय पूर्णरूप से उनके ज्ञानालोक में प्रतिविम्बित हो उठे।'
साधक जीवन : एक अवलोकन
श्रमण महावीर वि० पू० ५१२ मृगसर कृष्णा दशमी को साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़े थे और निरन्तर साढ़े बारह वर्ष, तेरह पक्ष तक उसी पथ पर अद्भुत धीरता और समता के साथ गतिमान रहे । साढ़े बारह वर्ष का यह साधक जीवन महावीर की अग्निपरीक्षा का समय था, उनकी तितिक्षा, समता, अहिंसा करुणा, ध्यानलीनता और अद्भत तपश्चरण की इतनी कठोर परीक्षाएं हुई कि उनकी कल्पना भी मन को प्रकंपित कर डालती है। उनकी साधना का मार्ग बड़ा बीहड़ था। जिसे हमारी बापदृष्टि सुख समझती है, उसका तो शायद उन्हें अनुभव ही नहीं हुवा होगा, पर उनकी चेतना दुख में भी, अनन्तसुब का संवेदन करती रही, यह सत्य है । वैसे बंधन और वंदन, पूजा और पीड़ा, उपसर्ग और उपासना, सन्मान और अपमान, दुस्सह यातनाएं और भक्तिपूर्ण भावनायें उन्हें मिलीं, बाहुल्य बन्धनों और यातनावों का रहा, पर दोनों ही प्रकार की स्थितियां उनके तन तक ही सीमित रहीं, उनका मन कभी किसी बाह्या निमित्त को पाकर न कभी खिन्न हुबा और न प्रसन्न । प्रसन्नता और आनन्द का अथाह सागर तो उनके अन्तःकरण में सतत हिलोरें मार रहा था। उनकी चेतना अत्यन्त प्रबुद्ध, उनकी तितिक्षा अवर्णनीय और समता योग तो अद्वितीय पा।
१ घटना वर्ष वि.पू. ४६EE, ई.पू. ५५७