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१२४ | तीर्थकर महावीर माया था! श्रमण को ध्यानस्थ देख कर बोला-"देवार्य ! जरा मेरे बैलों की देखभाल करना, अभी बाता हूं।"
ग्वाला गांव में चला गया, कुछ समय पश्चात् लौटा, बल चरते-चरते कहीं दूर निकल गये थे, वहाँ कहाँ मिलते ? उसने इधर-उधर हूंढा, पर, बल दिखाई नहीं दिये तो उसने पूछा-'देवार्य ! बताओ मेरे बैल कहाँ गये ?'
महावीर किसके बलों का अता-पता रखते । वे मौन-ध्यान में लीन थे । ग्वाले ने दुबारा पूछा, फिर भी मौन । अब तो ग्वाला आग-बबूला हो गया, और खूब जोर से चिल्ला उठा-- 'ऐ ढोंगी बाबा! तुझे कुछ सुनाई भी देता है या नहीं। बहरा तो नहीं है ?' महावीर ने कोई उत्तर नहीं दिया।
___ 'अच्छा, लगता है दोनों ही कान फूटे हैं, जरा ठहर, अभी तेरी चिकित्सा करता है। आवेश में मूढ़ ग्वाले ने किमी वृक्ष की दो पनी लकड़ियां ली और महावीर के कानों में आर-पार ठोंक दी।
कितनी असह्य. मर्मान्तक वेदना हुई होगी? पर, फिर भी महाश्रमण ध्यान से चलित नहीं हुये, बाह्य निमित्त पर तो उनकी दृष्टि ही नहीं थी, वे तो आत्मा के विशुद्ध उपादान पर ध्यान-चेतना को केन्द्रित किये प्रतिमा बने खड़े थे। कायोत्सर्ग पूर्ण कर श्रमणवर छम्माणी से मध्यमा नगरी में भिक्षा के लिये गये। भिक्षा हेत भ्रमण करते हुये वे सिद्धार्थ नामक वणिक के घर पहुंच गये। वणिक के पास ही उसका परम सखा खरक बंध भी बैठा था। इस तेजस्वी महाश्रमण को देखकर दोनों ही उठे, आदरपूर्वक बन्दना की और भिक्षान्न दिया।
दीर्घकालीन तप की अग्नि में तपकर महाश्रमण को काया स्वर्ण-सी कान्तिमान हो रही थीं, उनकी मुखाकृति पर अपूर्व तेज दीप्तिमान था, किन्तु फिर भी कानों में घुसी कीलों की वेदना आंखों में स्पष्ट झलक रही थी। खरक वैद्य ने श्रमण की मुखाकृति को सूक्ष्मता के साथ देखा, तो वह भांप गया। उसने सिद्धार्थ से कहा-इस तपस्वी महाश्रमण को कुछ न कुछ वेदना अवश्य है, इनके शरीर में कहीं कोई न कोई शल्य खटक रहा है। तभी तो सर्वलक्षणसम्पन्न होते हुये भी इनकी दीप्ति कुछ मन्द, धुंधली-सी हो रही है।
सिद्धार्थ ने पाश्चर्य और खेद के साथ कहा-हैं ! ऐसे महाश्रमण के तन में बेदना ? गुप्तशल्य ? मित्र, फिर तो उसका पता लगाकर उपचार करना चाहिये । ऐसे तपस्वी की सेवा करना तो महापुण्य का कार्य है।"
जब तक महावीर भिमा ले रहे थे, खरक बैब ने सूक्ष्मता से उनके शरीर का अवलोकन किया और शीघ्र ही पता लगा लिया कि -श्रमणवर के कानों में