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साधना के महापच पर | १२३ इतने क्रूर कष्ट देते तो सामान्य साधक का जीवन तो कष्टों की बाग में शायद भस्म हो हो जाता।
एक बार (चन्दना की मुक्ति के बाद) श्रमण महावीर कौशाम्बी से विहार कर पालक ग्राम की ओर जा रहे थे। उसी मार्ग में भायल नाम का कोई वैश्य धन कमाने देश यात्रा पर जा रहा था। मार्ग में महावीर मिल गये, वैश्य ने मुंडित सिर श्रमण को देखा तो उसे लगा- यह तो बड़ा भारी अपशकुन हो गया, उसे श्रमण पर इतना गहरा क्रोध आया कि उसके हाथ में तलवार थी, वह तलवार से महावीर के टुकड़े-टुकड़े करने को दौड़ पड़ा। पर, महाश्रमण तो मौन थे, अपनी ही मस्ती में चल रहे थे. वैश्य को तलवार का प्रहार करने आते देखा तो वहीं स्थिर खड़े रह गये । उनकी तेजोदीप्त मुखमुद्रा को देखते ही दुष्ट वैश्य के हाथ से तलवार छूट गई और वह उसी के सिर पर जा पड़ी। महावीर को, यदि यह प्रहार अपने ऊपर होता तो इतना कष्ट नहीं होता, किन्तु उसी वैश्य की अपनी तलवार से हत्या हुई देखकर उनकी करुणा सजल हो उठी। पर वे करते भी क्या ? दुष्ट अपने ही दुष्कृत्य से मरा ?'
इस प्रकार के दारुण, प्राणघातक और पीड़ा-कारक प्रसंगों के झंझावातों में शायद हिमालय-सा अचल योगी भी हिल जाता, पर इतने दीर्घकाल तक कष्टों को सहते हुये भी महावीर उसी प्रसन्नता और हार्दिक आनन्द की अनुभूति के साथ अपनी साधना में लीन रहे। ऐसा लगता था, मानो ये पीड़ाएं उनके तन तक ही पहुंच पाती है, उनके मन को, उनकी अन्तश्चेतना को स्पर्श भी नहीं कर पाई हों।
कष्ट और उपसर्ग के सागर में तैरते-तैरते महावीर अब लगभग किनारे पहुंच गये थे। साधना की अग्नि-परीक्षा में तप कर दमक उठे थे। साधनाकाल के अन्तिम समय और कंवल्य-प्राप्ति के पूर्व दिनों में एक दारुण कष्ट और एक असा पीड़ा जो उनके अब तक के जीवन में सबसे भयकर थी, उससे भी उन्हें जूझना पड़ा। अन्तिम विजय तो उनकी थी ही।
कानों में कील
साधना काल के तेरहवें वर्ष में श्रमण महावीर छम्माणि गांव के बाहर कायोत्सर्ग किये खड़े थे । संध्या को एक ग्वाला जो कहीं खेतों में काम करता हवा
१ पटनावर्ष वि. पू. ५००