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साधना के महापय पर | १२५ किसी दुष्ट ने कीलें ठोक दिये हैं। भिक्षा ग्रहण कर महावीर चले गये, खरक ने सिद्धार्थ से यह सब कहा तो वह सिहर उठा । “ऐसा दुष्ट, अधम कौन होगा? पर खैर, अभी तो शीघ्र ही श्रमण की चिकित्सा का प्रबन्ध करना चाहिये।"
खरक ने कोले निकालने के सभी साधन जुटाये और शीघ्र ही महावीर के पीछे-पीछे उस उद्यान में आये, जहाँ श्रमणवर पुनः ध्यान प्रतिमा लगाये खड़े थे। इस असह्य वेदना के समय में भी उनकी धीरता और सहनशीलता देखकर दोनों ने ही दांतों तले अंगुली दबा ली। खरक ने तैलादिक से महावीर के तन का मदर्नादि किया और दोनों ओर से दोनों ने संडासियों (कंकमुख) से पकड़कर बलपूर्वक वे कीलें खींचीं। कीलें निकालते समय सुमेरु सम महावीर को भी इतनी असह्य और मर्मान्तक वेदना हुई कि उनके मुख से एक भयंकर चीख निकल पड़ी। कीलों के साथ ही रक्त की धारा छुट गई, खरक ने संरोहण औषधि का लेप कर श्रमण-श्रेष्ठ के घावों को शीघ्र ही भर दिया।
उस समय महावीर की इस मर्मान्तक चीख पर कवि ने लिखा है- "चीख की प्रतिध्वनि से दिशाएं कांप उठीं पृथ्वी का हृदय फटने लग गया, विशाल गिरिराज डोलने लग गये-क्षणभर तो प्रलयकाल-सा दृश्य उपस्थित हो गया, किन्तु यह चीख किमी हिंस्र व अशान्त हृदय की नहीं, एक विश्ववत्सल करुणाशील महात्मा के मुख से निकली थी, इस कारण कोई अनर्थ नहीं हुआ।
महावीर इस प्राणान्तक वेदना के प्रसंग पर भी प्रसन्न थे और थे अन्तश्चेतना में लीन । कानों की कीलें निकलीं, वे शल्य-रहित हो गये, और सिर्फ बाह्य शल्य से ही नही, अन्तर्शल्य से भी सर्वथा मुक्त हो रहे थे। उनके साधक जीवन की यह अन्तिम वेदना थी, कष्टों की यह आखिरी घड़ी थी, अन्तिम कड़ी थी जो अब टूट
चुकी थी।
कैवल्य-प्राप्ति
जभिय गाँव का वह सीमान्त, ऋजुवालुका नदी का शान्त उत्तरी तट, श्यामाक किसान का खेत और उसमें स्थित वह विशाल शालवृक्ष । कितना पावन होगा ! जिसकी स्मृतियाँ हजारों-हजार वर्ष बीत जाने पर भाव भी तन-मन को गुदगुदा देती हैं, चेतना को पुलकित कर देती हैं । और वह भूमि कितनी पवित्र
१ षटना वर्ष वि. पृ. ५००।
-विष्टि० १०४