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साधना के महापथ पर | ११५ चम्पा की लूट में जहाँ अन्य सैनिकों ने स्वर्ण, मणि, हीरे-मोती से अपने घर भर लिए, और पीढ़ियों की दरिद्रता मिटा ली, वहां इसे क्या कुबुद्धि हुई कि इस कलमही दासी को ही उठा लाया ? यह तो मेरी आस्तीन का ही सांप बनकर रह रही है। इस मिथ्या आशंका और ईर्ष्यावश घर में पति-पत्नी में कलह शुरू हो गया। गह-कलह कहीं महाभारत का रूप न ले ले, अत: एक दिन वसुमती ने ही रथिक से कहा-'भाई ! भाभी को स्वर्णमुद्राओं की इच्छा है, अतः तुम मुझे दासों के बाजार में कहीं बेच आओ तो तुम्हारा गृह-कलह भी मिटे और भाभी की मनोकामना भी पूर्ण हो जाय ।" अनेक विकल्पों के बाद आखिर छाती पर पत्थर रखकर रथिक ने वसुमती को कौशाम्बी के बाजार में खड़ी कर बोली लगा दी।
हजारों दासियां वहाँ बिक रही थीं, किन्तु वसुमती का शील-सौन्दर्य कुछ विलक्षण ही प्रतीत हो रहा था। लोगों ने हजार, दस हजार तक बोली लगाई, किन्तु रथिक ने एक लाख स्वर्णमुद्रा की मांग रखी। तब कौशाम्बी की एक प्रसिद्ध गणिका ने इस अप्सरा-तुल्य दासी को खरीद लिया एक लाख स्वर्णमुद्राओं में।
वसुमती ने जब गणिका के हाथों स्वयं को बिका देखा तो उसका रोम-रोम रो उठा । फिर भी वह साहस और धीरज की पुतली थी, उसने गणिका से जब उसके काम के विषय में पूछा तो उसने कह दिया-"माता जी ! मैं यह कार्य कभी भी नहीं कर सकती, आपकी एक लाख स्वर्णमुद्राएं पानी में चली जायेंगी। मुझे मत खरीदिये । मैं आपके घर हगिज नहीं जा सकती।"
गणिका के सेवकों व दलालों ने वसुमती को पकड़कर ले जाने की और सीधे पांव न चली तो घसीट कर ले जाने की धमकी दी। कहते हैं तभी कुछ कुन बन्दरों की टोली अचानक गणिका पर टूट पड़ी, उसके वस्त्र फाड़ डाले, शरीर को नोंचनींच कर खून की धाराएं बहा दीं। बाजार में चारों ओर भगदड़ मच गई, शोरशराबा होने लगा।
उसी समय कौशाम्बी का कोट्याधिपति धनावह सेठ उपर से निकला। यह अजीब दृश्य देखकर वह रुका और पूछा- "क्या बात है?" लोगों ने कहा"यह दासी एक लाख स्वर्ण-मुद्रा में बिक गई है, पर जिस गणिका ने खरीदा है, उसके साथ जाने से यह मना कर रही है, और उल्टे इसी के किन्हीं गुप्त दलालों ने बन्दरों से गणिका को नोंचवा डाला है।"
१ सम्भव है वसुमती के किसी हितैषी ने ही यह कृत्य करवाया हो, ताकि गणिका की बुद्धि
ठिकाने भने-परिबलेखक बाचार्यों ने इसके पीछे शील सहायक देवताबों का हाप माना है।