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साधना के महापप पर | ११७ पत्नी की भांति सशंक हो गई। उसी प्रसंग में मूला की अव्यक्त आशंका को पुष्ट करने वाली एक घटना घट गई।
एक दिन मध्याह्न के समय धनावह बाहर से आया । उसने दासी को हायपैर धोने के लिए पानी लाने को कहा । दामी किसी कार्य में व्यस्त थी। चन्दना ने पिताजी की वाणी सुनी, वह स्वयं जल लेकर दौड़ आई। सेठ बहुत थका हुआ धूप से क्लांत दीख रहा था, पितृभक्तिवश चन्दना स्वयं ही जल लेकर पिताजी के पैर धोने लगी। उसके लम्बे-लम्बे सघन केश खुले थे, नीचे झुकने पर वह भूमि पर लग गये, तब धनावह ने सहजभाव से चन्दना की खुली केशराशि को अपने हाथों से ऊपर उठा दिया।
मूला सेठानी यह सब देख रही थी। उसका पापी हृदय पाप की कल्पना में हुन गया, चन्दना की सहज भक्ति और धनावह का यह शुद्ध स्नेहपूर्ण व्यवहार उसके हृदय में फैली दुर्भावना और आशंका की घास में आग की तरह फैल गया । उसे लगा-"सेठ को बुढ़ापे में जवानी याद आ रही है, आज जिसे पुत्री कहकर पुकारता है, कल उसे पत्नी बनाने में भी शर्म नहीं करेगा। यह पुरुष का कामी स्वभाव ही है । अतः विषवेल को बढ़ने से पहले ही उखाड़ फेंकना चाहिये, वरना यह बेटी बनकर आई हुई सर्पिणी मेरे सुख-संसार को निगल जायेगी।" यह सोचकर दुष्ट मूला ने एक दिन अवसर पाकर चन्दना के हाथ-पैर बेड़ियों से जकड़ दिये । उसके भ्रमर-से काले केशों को उस्तरे से मुंडवा दिया, तन पर सिर्फ एक पुराना वस्त्र लिपटा छोड़ा, बाकी सब वस्त्र उतार लिए और पकड़कर भौंहरे ( भूमिगृह ) में डाल दिया । भौहरे पर ताला लगाकर मूला अपने पीहर चली गई, सेठ धनावह कौशाम्बी से बाहर था।
[२] कौशाम्बी के इन स्वेच्छाचार पूर्ण, कर दारुण यंत्रणा भरी स्थितियों में श्रमण महावीर अपना घोर अभिग्रह लिये नगर में पर्यटन करते थे। वहां हजारों सद्गृहिणियां और कई राजकुमारियां भी दासी बनकर पशुवत् जीवन जी रही होंगीइसकी सहज कल्पना हो सकती है, जबकि वहाँ के महाराज शतानीक की प्रिय रानी की भानजी ही उसकी नाक के नीचे पशुओं की तरह बाजार में बेची गई, और राजा के कानों में भनक तक भी नहीं पहुंची। रानी ने उसकी खोज-खबर तक नहीं ली तो
और नारियों एवं कन्याबों की क्या दशा हुई होगी? कितना निर्दयतापूर्ण वातावरण होगा वहाँ का? कितनी सुकुमारियों वहां छिप-छिप कर आंसू बहाती होंगी? और भीतर-ही-भीतर अपने स्वजनों के वियोग एवं पराधीनता की यंत्रणा में हा-हाकार