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११२ | तीर्थकर महावीर दासी को सिद्धार्थ ने उसी समय दासीपन से मुक्त कर दिया था। उनके जन्मोत्सव प्रसंग पर भी राज्य में सैकड़ों-हजारों दास-दासियों को दासता से मुक्त कर सच्चा उत्सव मनाया गया था। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब कभी आनन्द और उल्लास के अवसर पर कुछ पुरस्कार आदि का प्रसंग आया तो महावीर की दृष्टि सर्वप्रथम मनुष्य को पाशविक बन्धनों से मुक्त कराने की रही, चाहे वह शूद्र हो, या स्त्री (दासो) हो। सर्वतोभद्र आदि तपःप्रतिमाओं की समाप्ति पर जब महावीर ने वाणिज्यग्राम के आनन्द गायापति' के घर पर पारणा ग्रहण किया तो वह भिक्षादान भी उसकी दासी बहुला के हाथ से ही प्राप्त हुआ, और कहा जाता है कि जब आनन्द को इस पुण्य प्रसंग की सूचना मिली तो उस खुशी में उसने सर्वप्रथम वही कार्य किया, जो महावीर को सबसे प्रिय था-बहुला दासी को दासीपन से मुक्ति ।
साधनाकाल के बारहवें वर्ष में तो महावीर ने एक घोर अभिग्रह (बज संकल्प) किया, जो जैन-इतिहास के पृष्ठों पर आज भी जगमगा रहा है। वह धोर अभिग्रह भी नारी को दासता से मुक्त कराने के एक कठोर संकल्प की फलश्रुति के रूप में ही हमारे सामने आता है । इसमें श्रमण महावीर की कठोरतम तितिक्षावृत्ति का परिचय तो मिलता ही है, पर दूसरा भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है उस युग की यन्त्रणाभरी प्रथाबों के विरुद्ध उनका एक यह तेजस्वी अभियान ! एक वचसकल्प !
असुरराज चमरेन्द्र को शरणागति के पश्चात् श्रमण महावीर विहार करते हुए कौशाम्बी के उद्यान में आये। उन दिनों कौशाम्बी का राजनैतिक वातावरण कितना अशान्त और लोकजीवन कितना असुरक्षित, अस्त-व्यस्त था, यह तो आगे के घटनाक्रम से स्पष्ट हो जायेगा। लगता है वहां के लोकजीवन की इन दारुण यन्त्रणाओं तथा भयाकुलता से व्यथित होकर ही महाकारुणिक श्रमण महावीर ने पौष कृष्ण प्रतिपदा को मन में यह घोर अभिग्रह किया
कोई सुशीला राजकुमारी, जो दासी बनकर जी रही हो, जिसकी आँखें [व्यथा के कारण] बांसुमों से भीगी हों, हाथ-पैर बेड़ियों से बंधे हों, जिसका सिर मुंग हो, तीन दिन की भूखी-प्यासी हो, जिसका एक पांव देहली के बाहर एवं एक पाव भीतर हो, भिमा का समय बीत चुकने पर (दुपहर में) उड़द के बाकुले सूप के
१ यह बानन्द गावापति पावनाष परम्परा का श्रमणोपासक पा बतः दस प्रावकों में गिने गये
बानन्द गापापति से मिल माना गया है।