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साधना के महापथ पर | १११ जीवनदान प्राप्त कर प्रभु के चरणों में लोटने लगा होगा। दोनों के लिए ही प्रभु के मुख कमल पर अभय और करुणा, प्रेम और सद्भाव की रेखाएं उभर रही होंगी।
इस घटना-प्रसंग से तीन फलश्रुतियां हमारे सामने आती हैं :- . १ फलासक्ति के साथ तप करने से तप का दिव्य फल क्षीण हो जाता है।
२ क्रोध और अहंकार में अन्धा हा व्यक्ति अपने सामर्थ्य का विवेक खो देता है और ऐसा अपकृत्य कर बैठता है, जो उसी की जान ले लेता है।
३ अहिंसा की उत्कट साधना में वह दिव्यशक्ति है, जो अपने पास बैठे हुए कट्टर शत्रुओं को मित्र, विजेता को विनम्र और अपराधी को अपराध पर क्षमायाचना कर भयमुक्त बनाने में समर्थ है।
घोर अभिग्रह
भगवान महावीर को साधना करते हुए लगभग ग्यारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे। इस अवधि में वे अंग-मगध, कलिंग, वत्स, विदेह आदि जनपदों में कई बार भ्रमण कर चुके थे, भले ही वे प्रायः नगरों के बाहर एकान्त में ही रहे। जनसंकुल क्षेत्रों से दूर । पर फिर भी लोकजीवन का कुछ-न-कुछ संपर्क व अनुभव तो होता ही रहा,
और चूकि उनकी दृष्टि बड़ी सूक्ष्म थी, जन-जीवन में व्याप्त रूढ़ियों, पीड़ाओं एवं कष्टों को वे बड़ी गहराई से पकड़ते थे और उनके निराकरण के लिए मन में विविध सकल्प कर उनके लिए प्रयत्नशील भी रहते थे। सेवा-भावी शद्रों के साथ अमानवीय क्रूर व्यवहार और मातृजाति नारी को दासता एवं परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़े रखना-उस युग की यह सबसे बड़ी समस्या थी, जो प्रतिपल करुणामूर्ति महावीर के हृदय को कचोटती रहती थी। शूद्रों को ही नहीं, किन्तु सुकुमार सुन्दरियों को भी बाजार में गल्ले-किराने की तरह बोली लगाकर बेचा जाता था, महावीर जब कभी ऐसा दृश्य देखते, या ऐसी कोई घटना सुनते तो उनका नवनीत-सा कोमल मानस भीतर-ही-भीतर तड़प उठता ।
महावीर स्त्री मात्र को मातहष्टि से देखते थे, अहिंसा की स्नेहाताने उनके हृदय को मातृहृदय की भांति वात्सल्य से पूरित कर दिया था, तभी तो चंडकौशिक के काटने पर रक्त के बदले दुग्ध की धारा बही थी, उनके बंग से। हम प्रारम्भ में बता चुके हैं, कुमार वर्धमान के जन्म की बधाई लेकर आने वाली