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सापना के महापथ पर | १०९ प्रमोद व ऐश्वर्य में मस्त था । अपने सिर पर इस प्रकार सौधर्मेन्द्र को मानन्द-विलास करते हुये देखकर चमरेन्द्र का अहंकार क्रोष के रूप में भड़क उठा । उसने अन्य असुरकुमारों से पूछा-यह कौन पुण्यहीन, विवेकहीन, अहंकारी देव है, जो यों हमारे मस्तक पर निर्लज्जतापूर्वक बैठा देवियों के साथ हास-विलास कर रहा है ? क्यों न इसके अहंकार को चूर-चूर कर दिया जाय ? अन्य असुरकुमारों ने उसे समझाया"यह सौधर्मेन्द्र है, और अपने विमान में बैठा है, हमसे अधिक शक्तिशाली है, अतः इससे कुछ छेड़-छाड़ करना अपनी जान से खेलना होगा।"
अहकार में दीप्त चमरेन्द्र ने अट्टहास के साथ अन्य असुरकुमारों का उपहास किया-"तुम सब कायर हो, मैं किसी को यों अपने सिर पर बैठा नहीं देख सकता। अभी मैं उसकी टांग पकड़कर आसन से क्या, स्वर्ग से भी नीचे फेंक देता हूं।"
अहकार, ईर्ष्या, और क्रोध के आवेग में अन्धा बना हुआ असुरेन्द्र एक भयंकर हुंकार के साथ उठा सौधर्मेन्द्र पर प्रहार करने, तभी सहसा मन के सघन अंधकार के एक कोने में हल्की-सी ज्योति जली, उसे अपनी दुर्बलता और तुच्छ सामर्थ्य का अनुभव हुआ, कहीं मैं पराजित हो गया तो, जान भी नहीं बच पायेगी? तभी एक रात्रि को महाप्रतिमा ग्रहण करके ध्यानयोग में स्थिर श्रमण भगवान महावीर का स्मरण हुमा बस, यही एक श्रमण तपोमूर्ति ऐसा सामर्थ्यशाली है, जो मुझे शरणभूत हो सकता है।
__ध्यानलीन श्रमण भगवान महावीर के चरणों में असुरेन्द्र आया। महावीर तो ध्यान में अन्तर्लीन थे। उसने विनयपूर्वक प्रदक्षिणा की और बोला-"प्रभो ! आज मैं उस अहंकारी सौधर्मेन्द्र से लोहा लेने जा रहा हूं, मेरी जीवन-रक्षा आपके हाथ में है, आप ही मेरे अनन्य-शरण हैं।"
महावीर को वन्दना कर असुरराज ने विकराल रूप बनाया, और रौद्र हुंकार करता हुआ स्वर्ग में पहुंचकर देवराज इन्द्र को ललकारने लगा। उसका भयानकरौद्र रूप देखकर हास-विलास में मग्न देवगण डर गये, देवियों की कांति मन्द पड़ गयी । स्वर्ग में खलबली मच गई, अचानक असुरराज के आक्रमण का सम्वाद बिजली की भांति सर्वत्र फैल गया, अनन्तकाल में ऐसा कभी नहीं हुआ । महाश्चर्य ! तभी देवराज इन्द्र ने असुरेन्द्र को ललकारा-"दुष्ट ! यह धृष्टता तेरी ! दूसरे के भवन में आकर यों उत्पात मचाना" और क्रोध में आकर अपना दिव्य पण असुरेन्द्र पर
१ भगवान महावीर तब सुसुमारपुर [वर्तमान चुनार (उ. प्र.)] के निकट बसोकवन में
ध्यानस्थ थे।