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११० | तीर्थकर महावीर फैका । हजार-हजार विलियों की तरह चमकता-काँपता वज़ देख कर असुरेन्द्र घबराया, जान मुट्ठी में लेकर उल्टे पैरों भागा । व उसका पीछा कर रहा था। तीक्ष्ण अग्नि-ज्वालाओं की तरह उसकी किरणें असुरराज को भस्म करने को दौड़ रही थीं, तीव्र वेग से दौड़ता, भागता, घबराया हुआ असुरराज सीधा पहुंचा ध्यानलीन श्रमण महावीर के चरणों में । भय से कांपता हुआ वह पुकार रहा थाभयवं सरणं, भय सरणं-प्रभो! आप मेरे शरणदाता हैं, बचाइये, रक्षा कीजिए। और वह छोटी-सी चींटी का रूप बनाकर महावीर के चरणों में छुपकर, दुबक कर बैठ गया।
देवराज ने क्रोधाविष्ट होकर असुरराज पर प्रहार करने वज्र फेंक तो दिया; किन्तु तुरन्त ही उन्हें स्मरण आया, दुष्ट असुरराज को मेरे देव-विमान पर अचानक आक्रमण करने का साहस कैसे हुआ ? किसी भावितात्मा महापुरुष का आश्रय या शरण लिये बिना वह यहां तक कैसे आ पहुंचा ? और तत्क्षण ही उन्हें ध्यान आया "अरे ! यह तो तपोलीन श्रमण महावीर के चरणों का आश्रय लेकर आया है।" देवराज का हृदय अनिष्ट की आशंका से व्याकुल हो गया-कहीं मेरे वज-प्रहार से प्रभु महावीर का अनिष्ट न हो जाय । दिव्य देवगति से देवेन्द्र अपने वज के पीछे दौड़े-आगे-आगे असुरराज, पीछे अग्निज्वालाएं फेंकता हा वज और उसके पीछे वज को पकड़ने में उतावले देवराज । असुरराज तो महावीर के चरणों में जा छुपा, वज सिर्फ चार अंगुल दूर था तभी देवराज ने उसे पकड़ लिया और वे प्रभु महावीर से अविनय के लिए क्षमा मांगने लगे।।
अभयमूर्ति महावीर के समक्ष दो महान शक्तिशाली, परन्तु परस्पर शत्रु विनतभाव से बैठे हैं, एक विजेता है, फिर भी प्रभु के समक्ष विनम्र, एक पराजित है, अपराधी और मृत्यु के मुंह में जाते-जाते बचा है, पर वह भी वहां भयमुक्त है। यही तो उनकी अहिंसा का दिव्य प्रभाव है। देवराज ने पैरों के नीचे छुपे असुरराज को पुकार कर कहा-"असुरेन्द्र ! तुमने क्षमाश्रमण महावीर की शरण ग्रहण कर ली, इसलिये आज बच गये, चलो, अब महाश्रमण के शरणागत को मैं भी अभयदान देता है।" प्रभु की असीम करुणा और दिव्य शरण ने असुरराज को भयमुक्त कर दिया।'
वह दृश्य कितना भावपूर्ण होगा जब एक और विवेता देवेन्द्र, प्रभु को बन्दना कर रहा होगा और दूसरी बोर अपराध की आग से दग्ध असुरराज भी
१ [] घटना वर्ष वि. पू. ५०० शीतऋतु ।
[] भगवती सूत्र, शतक ३, उसक २ में यह प्रसंग विस्तार के साथ वर्णित है।