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१०८ | तीर्थकर महावीर
चमरेन्द्र की शरणागति
श्रमण महावीर के उत्कृष्ट ध्यान-योग की साधना में विघ्न-स्वरूप आने वाले दारुण कष्टों की कहानी पिछले पृष्ठों में लिखी जा चुकी है, इन कष्टों में महावीर की धीरता, स्थिरता और स्वावलम्बिता बड़ी ही आश्चर्यजनक थी। समय-समय पर अनेक गृहस्थ भक्त, राजन्य, देव एवं देवेन्द्र उनकी सेवा करने, कष्टों से रक्षा करने और सहायता के लिये सतत साथ रहने का आग्रह करते रहे, परन्तु प्रभु तो अनन्यशरण थे । स्वयं ही स्वयं की शरण, स्व-बल पर ही आत्मविजय की अडिग निष्ठा लिए एकाकी चलते रहने वाले वीर थे। महावीर की आत्मशरणता इतनी तेजस्वी मौर प्रखर थी कि वह दूसरों की शरण क्या खोजती, महावृक्ष की भांति विश्व के लिए स्वयं ही शरणभूत बन गई, पशु और मनुष्य ही क्या, किन्तु देव-देवेन्द्र भी उस महातपस्वी की चरण-शरण में आकर निर्भय हो जाते, कष्टों से मुक्ति पाकर मानन्द का अनुभव करते । उनके जीवन का ऐसा ही एक भव्य प्रसंग है -जिसमें सुरों के इन्द्र सौधर्मेन्द्र के वचप्रहार से भयभीत होकर असुरराज चमरेन्द्र ने तपोलीन महावीर के चरणों में शरण ग्रहण की और अपने प्राणों की रक्षा की। प्रसंग इस प्रकार है :
विन्ध्याचल की तलहटी में 'पूरण' नामक एक समृद्ध गृहस्थ रहता था। एक बार उसके मन में एक संकल्प उठा कि मैं यहां जो सुख-भोग कर रहा है, वह सब पूर्वजन्मकृत पुण्य का फल है, इस जन्म में यदि कुछ ऐसा विशिष्ट तपश्चरण आदि न करूंगा तो अगले जन्म में सुख प्राप्त कैसे होगा? अतः कुछ तप आदि करना पाहिये । इस संकल्प के अनुसार मन में भावी जीवन के पुण्यफल की कामना का संस्कार लिये वह घर-बार छोड़कर संन्यासी बन गया और 'दानामा' (दान-प्रधान) प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। उसकी विधि के अनुसार वह दो दिन का उपवास करके पारणे के लिये निकलता तो हाथ में एक लकड़ी का चार खानों वाला पात्र रखता। पात्र के पहले खाने में जो भिक्षा प्राप्त होती वह भिखारियों को दे देता, दूसरे खाने में प्राप्त भिक्षा-कोषों, कुत्तों आदि को खिला देता। तीसरे खाने में प्राप्त भिक्षा मछलियों, कछुवे आदि जलचर प्राणियों को डाल देता और चौथे खाने में जो कुछ बचता वह स्वयं खाकर पारणा करता । इस प्रकार का घोर तप बारह वर्ष तक करता रहा । अन्त में एकमास का बनशन कर आयुष्य पूर्ण कर वह असुरकुमारों का इन्द्रचमरेन्द्र बना । उसने अपने ज्ञानबल से इधर-उधर देखा-संसार में मुम से भी कोई अधिक बलशाली और ऋद्धिशाली है क्या ? तभी ठीक उसे देव-विमानों के ऊपर सौषर्म-विमान में इन्द्रासन लगा दिखाई दिया । सौधर्मेन्द्र अपने भोग-विलास, मामोद.