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साधना के महापथ पर | १०७ तीर्थकरों के दिव्य अतिशय के अनुसार पारणा करते ही आकाशमंडल देव दुंदुभियों से गूंज उठा । 'अहोदानं अहोदान' की उद्घोषणाएं होने लगी और पांच प्रकार की दिव्य वृष्टियों से धरती का सौन्दर्य सहस्रगुना निखर उठा।
उधर वह भूतपूर्व नगररेष्ठी , जिसे लोक जीर्ण सेठ' कहने लग गये थे, अब तक बड़ी ही दिव्य भावनाओं से मन को प्रफुल्ल कर रहा था । वह सोच रहा था-"कल्पवृक्ष को अमृत से सींचना सुलभ है, पर तपोमूर्ति ध्यानमणि महावीर को दान देना महान दुर्लभ है, यह प्रसंग असीम पुण्योदय एवं अनन्त सौभाग्य का फल है।" इन्ही पवित्र भावनाओं में रमण करता हुआ वह महाश्रमण के आगमन की प्रतीक्षा में पलक-पांवड़े बिछाये बैठा था, जैसे ही दिव्य उद्घोष सुना, उसकी आशाओं पर तुषारापात हो गया। जैसे कोई दिव्य-स्वप्न भंग हो गया हो । वह जीर्ण सेठ हताश हो अपने भाग्य को कोसने लग गया । किन्तु फिर भी वह पूर्ण सेठ के भाग्य की सराहना करता रहा-जिसने महाश्रमण को दान दिया।
इधर जिस सेठ ने (पूर्ण सेठ) मुट्ठी भर बासी अन्न दिया था, उसने जब पांच दिव्यवृष्टियां देखीं और चारों ओर से बधाईयां आती सुनी, तो उसके कान खड़े हो गये, उसने सोचा-यह कोई साधारण भिक्ष तो नहीं है। अतः उसने लोगों में झूठी शेखी बघारते हुये कहा-"मैंने इस श्रमण को परमान (खीर) का दान किया है, इसी कारण मेरे घर पर रत्नों व पुष्प आदि की दिव्य दृष्टियाँ
इस घटना-प्रसंग में भगवान महावीर की अनिमंत्रित भिक्षाचर्या का कठोर नियम और रूखा-सूखा जैसा भी भोजन प्राप्त हो, उसमें अदीनवृत्ति, तथा मुदितभावना का स्पष्ट दर्शन होता है। साथ ही सम्बन्धित जीर्ण व पूर्ण सेठ के भाव यह निर्देश करते हैं कि श्रमण महावीर के दर्शन में दान की परिकल्पना कितनी भावानुलक्षी है-वहां वस्तु का नहीं, भावना का ही मूल्य है । भव्य भावना रही तो दान के संकल्प मात्र से मुक्ति लाभ हो सकता है, और वह भी अहंकार प्रदर्शन का रूप लेने पर सिर्फ भौतिक उपलब्धि तक ही सीमित रहता है।
१ बताया जाता है जीर्ण सेठ की भावना इतनी ऊंची श्रेणी पर पहुंच गई थी कि यदि मुहूर्तभर
वह उसी भावणी पर चढ़ता रहता तो चार पनघाति कर्मों का भय कर 'केवलज्ञानी' बन
जाता । किन्तु भगवान के पारणा का संवाद सुनकर उसकी वह उन्चधारा टूट गई। १ (क) घटना वर्ष वि.पू. ५०१ ।
(ब) विषष्टि. १०४