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साधना के महापथ पर | १०५ घोर अपराधी पर भी करुणा व दया की वृष्टि करने का यह आदर्श इतिहास का एक चिरस्मरणीय प्रसंग बना रहेगा।
महावीर के करुणाई नयनों ने एक संगम को ही नहीं, किन्तु सभी देवी शक्तियों को यह चुनौती दी कि फिर उनको संत्रास एवं कष्ट देने का साहस किसी अन्य देवता ने नहीं किया । चुकि संगम एक बहुत बड़ा शक्तिशाली वैमानिक देव था और उसके द्वारा ६ महीने तक निरन्तर घोरातिघोर उपसर्ग देने पर भी महावीर का अन्तःकरण विचलित नहीं हो सका तो अन्य देवताओं का साहस क्या हो पाता? अतः ऐसा लगता है, संगम के उपसगों के साथ ही महावीर के जीवन में देवी उपसगों का अध्याय एक प्रकार से समाप्त हो गया, और इसके पश्चात् तो देवों व देवेन्द्रों का बार-बार आगमन, उनके द्वारा महावीर की वन्दना, स्तुति का तांता-सा लग जाता है--कहीं विद्युत्कुमारों का इन्द्र, कहीं चन्द्र, सूर्य, कहीं शकेन्द्र, कहीं ईशानेन्द्र और कहीं धरणेन्द्र आ-आकर प्रभु के दर्शन करते हैं, उनकी धीरता, वीरता एवं तितिक्षा का मुक्त गौरवगान करते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर मानव, दानव, एवं देवकृत उपसर्गों की अग्निपरीक्षा में पूर्णतः उत्तीर्ण हो कर, कष्टों के घोर रणक्षेत्र में अद्भुत शौर्य एवं पराक्रम का प्रदर्शन कर विजयश्री का वरण कर चुके थे और अब महान शौर्यशाली आत्मविजेता के विजयोत्सव की पूर्वभूमिका के रूप में देव-देवेन्द्रों का झुंड आ-आकर उनकी वन्दना-स्तवना कर स्वयं को कृत्यकृत्य मानने लगा। संसार में विजेता का सर्वत्र स्वागत होता ही है, शक्तिशाली की भक्ति कीन नहीं करता? इन घटना-प्रसंगों से इस सत्य की स्पष्ट अनुभूति हो जाती है ।
___संगम के चले जाने पर श्रमण महावीर ने एक बूढ़ी ग्वालिन के घर पर दूध में पके चावलों की भिक्षा प्राप्त की, छह मास के बाद यह प्रथम भिक्षा ग्रहण था।'
अनिमंत्रित भिक्षाचर
गौशालक और संगम जैसे दुष्ट ग्रहों के उत्पीड़न से मुक्ति पाकर श्रमण महावीर ध्यान-साधना के उच्चतम शिखर पर चढ़ते हुए एक बार वैशाली के बाहर
१ घटना वर्ष वि. पु. ५०१,