________________
साधना के महापय पर | १०३ -"अरे रुको ! यह कोई परमहंस योगी तो नहीं है ? हम धोखे में कुछ अन्याय न कर बैठे ?" क्षत्रिय स्वयं दौड़कर आया, महावीर की शान्त, तेजोदीप्त मुखमुद्रा देखकर सहसा उनके चरणों में गिर पड़ा-हे परम योगिराज! हमारा अपराध क्षमा कीजिये। कृपा कर अपना परिचय देकर उपकृत कीजिये ।" महावीर फिर भी चुप थे, तोसलि ने बार-बार विनय करके प्रभु से श्रद्धापूर्वक क्षमा मांगी और वहाँ से विदा दी।
इस प्रकार संगम ने अपनी उपद्रवी बुद्धि का तार-तार खोलकर श्रमण महावीर को हर प्रकार से त्रास, संकट एवं प्राणान्तक उपद्रवों से उत्पीड़ित करने की व्यर्थ चेष्टाएं कों, मृत्यु के अन्तिमचरण फांसी के तख्ते पर चढ़ाने में भी वह सफल हो गया। किन्तु महावीर आज भी प्रशान्त, प्रमुदित और ध्याननिमग्न दशा में शान्ति का अनुभव कर रहे थे। ध्यानयोग की विशिष्ट प्रक्रियाओं से उनका मन तो वन-सा हुआ ही, किन्तु फूलों-सा सुकुमार तन भी जैसे वज्रमय हो गया था।
करुणाशील महावीर विश्व के किसी भी महापुरुष को अपने जीवन में संभवतः इतने उग्र कष्ट नहीं झेलने पड़े होंगे, जितने कि श्रमण महावीर को । वह भी साधना-काल के सिर्फ साढ़े बारह वर्ष में । इसका कारण लोगों की अज्ञानता तो रहा ही होगा, साथ ही श्रमण वेष के प्रति द्वेष तथा मुख्यतः कुछ देव-दानवों द्वारा जान-बूझकर महावीर का उत्पीड़न और साधना-मंग करने का प्रयत्न भी रहा। किन्तु महावीर सचमुच में महावीर थे। वे किसी स्थिति में अपने ध्येय से विचलित नहीं हुये । पथ में श्रद्धा के फूल विखरे मिले, तब भी चलते रहे, देष के कांटों और संकटों की तलवारों की पार पर भी एकनिष्ठा और ध्येय के प्रति समर्पित होकर चलते ही रहे।
संगम देव-६ महीने तक श्रमण महावीर का पीछा करता रहा, तरह-तरह के आरोप, उपद्रव और संकटों के भचाल उठाता रहा । ६ मास तक निरन्तर महावीर के पीछे रहकर उसने उन्हें एक कण अन्न और एक बूंद पानी भी प्राप्त नहीं होने दिया, शायद कोई दूसरा साधक होता तो इतने उपद्रवों को हजार जन्म धारण करके
१(क) घटनावर्ष वि. पू. ५०२-५०१ (ख) बावश्यक नियुक्ति गाथा ३९३