________________
१०६ | तीर्थंकर महावीर महाकामवन नामक उद्यान में ठहरे । चातुर्मास प्रारम्भ हो रहा था । अतः महावीर चातुर्मासिक तप और ध्यानप्रतिमा अंगीकार कर वहीं स्थिर हो गये।
वैशाली के एक जिनदत्त श्रेष्ठी ने (जो किसी समय वहाँ के नगरश्रेष्ठी पद को अलंकृत करता था, और अपार वैभव का स्वामी था, अब उसके भाग्य का सितारा मंद पड़ गया था अतः लोक उसे जीर्ण सेठ कहने लग गये थे) श्रमण महावीर को महाकामवन में तपःलीन देखा । वह प्रतिदिन प्रात:काल वहाँ बाकर महा. श्रमण को वंदना करता, और अपने घर पर भिक्षा ग्रहण करने की भाव-भीनी प्रार्थना भी ! आज एक मास बीत गया, श्रेष्ठी ने मासांत के दिन सोचा-"आज तो महाश्रमण एक मास के तप को पूरा कर मेरी भावना को अवश्य सफल करेंगे, अतः उसने विशेष भक्तिपूर्वक आग्रह किया। पर महाश्रमण तो कहीं भिक्षार्थ गये नहीं। दूसरा और तीसरा मास भी यों ही बीत गया, श्रेष्ठी की भक्ति-भावना का क्रम सतत चलता रहा और उधर चलता रहा श्रमण महावीर की ध्यान-साधना का क्रम भी, अखण्ड दीप-शिखा की भांति ।
चातुर्मास समाप्त होने को आया, कार्तिक पूर्णिमा का दिन भी निकल गया। श्रेष्ठी ने सोचा-"महाश्रमण आज तो निश्चित ही पारणा करेंगे और मेरी भावना सफल होगी ही।" उसने भक्तिभाव के साथ अत्यन्त आग्रह किया-"प्रभो ! आज का पारणा मेरे घर ही ग्रहण कीजियेगा।" महावीर मौन रहे । श्रेष्ठी घर पर जाा कर प्रभु के आगमन की प्रतीमा करता रहा, मध्याह्न का समय हुआ । श्रमण महावीर ने ध्यान पूर्ण कर भिक्षा के लिये वैशाली में प्रवेश किया। वे तो अनिमंत्रित भिक्षाचर थे, कौन निमन्त्रण देता है, कौन सत्कारपूर्वक दान देता है और कौन उपेक्षावृत्ति से, कौन पर आये भिक्षाचर को तिरस्कारपूर्वक टाल देता है-इस प्रकार का कोई विकल्प भी महावीर के मन में नहीं था। वे तो सिर्फ शुद्ध-निर्दोष भिक्षा देखते थे-मिष्ठान नहीं। वे सत्कार-तिरस्कार की भावना से मुक्त थे, सिर्फ देहयन्त्र को चलाने भर का संबल देना ही उनका लक्ष्य था। भिक्षाटन करते हुये श्रमण महावीर पूर्ण नामक एक श्रेष्ठी के घर में प्रविष्ट हुए । नाम उसका पूर्ण था, लेकिन मन अपूर्ण था। गृह उसका विशाल था, पर हृदय बड़ा भद्र । श्रमण को देखकर नाक-भौंह सिकोड़ते हुए उसने दासी से कहा-'देखो, द्वार पर कोई भिक्षुक बड़ा है, कुछ भिक्षा देकर विदा कर दो।'
दासी के हाप में जो भी रूखा-सूबा, बासी बन्न आया, उसने तिरस्कारपूर्वक महावीर के हाथों में डाल दिया। श्रमण महावीर ने प्रसन्नता के साथ ग्रहण कर उसी बासी बन्न से चातुर्मासिक तप का पारणा कर लिया।