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सापना के महापथ पर | ९७ श्रावस्ती में हालाहला नाम की संपन्न कुम्हारिन रहती थी। वह माजीवक मत की अनुयायी थी, गौशालक भी अपने को इसी संप्रदाय का भिक्षुक बताता था। वह श्रावस्ती में उसी कुम्हारिन की शाला में ठहर गया, और वहां तेजोलेश्या की साधना में लग गया।
छह मास की कठोर तपश्चर्या एवं आतापना के बल पर गौशालक ने सामान्य तेजोलब्धि प्राप्त कर ली। उसे यह भी संशय हुआ कि मेरी शक्ति महावीर जैसी प्रभाव. शाली है या नहीं, अतः इसका परीक्षण करने के लिए वह नगर से बाहर निकला। पनघट पर नगर की महिलाएं पानी भर रही थीं। गौशालक ने एक महिला (दासी) के भरे हुये घड़े पर कंकर से निशाना मारा, घड़ा फूट गया, महिला पानी से तर हो गई। भिक्षुक वेषधारी की इस शरारत पर महिला को बहुत क्रोध आया, वह गालियां बकने लगीं । गौशालक तो पहले ही अग्निपिंड था, गालियां सुनते ही भड़क उठा और आव देखा न ताव, उसने महिला पर तेजोलेश्या का प्रयोग कर डाला । महिला वहीं भस्म हो गई। बाकी सब महिलाएं भयभीत होकर भाग गई।
कुछ दिन बाद पार्श्वनाथ-परम्परा के छह दिशाचरों (पार्श्वस्थ श्रमण) से गौशालक की भेंट हो गई। वे अष्टांग निमित्त के पारगामी थे। गौशालक कुछ दिन उनके साथ भी रहा और उनसे निमित्त-शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर लिया, जिसके बल पर वह सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवित-मरण इन छह बातों में सिद्धवचन नैमित्तिक बन गया । इस प्रकार तेजोलेश्या एवं निमित्तज्ञान जैसी असाधारण चमत्कारी शक्तियों ने गौशालक का महत्त्व बहुत बढ़ा दिया। उसके अनुयायियों एवं भक्तों की संख्या बढ़ने लगी । भक्तों के बल पर वह साधारण भिक्षु भगवान् बन बैठा, स्वयं को आजीवक-संप्रदाय का आचार्य एवं तीर्थकर बताने लगा।
भगवान महावीर के जीवन में गौशालक का यह प्रकरण बड़ा विचित्र है। गौशालक को शिष्य रूप में स्वीकार करना, साथ लिये घूमना, बार-बार भविष्य कपन करना, शीतललेश्या का प्रयोग करना तथा उसकी साधना-विधि बताना-ये सब प्रसंग श्रमण महावीर की सहज सरलता, सौहार्द्रता, कारुणिकता और परोपकार-परायणता की दृष्टि से बड़े ही मार्मिक हैं।
१ इनके नाम थे क्रमश:-शोण, कलिंद, कणिकार, बच्छिद्र, अग्निवश्यायन और अर्जुन ।