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९८ | तीर्थकर महावीर
अग्निपरीक्षा
श्रमण महावीर के जीवन में तप, तितिक्षा और ध्यान की त्रिवेणी का संगम था, कठोर तप के साथ ध्यान के शान्त प्रकोष्ठ में प्रवेश करके वे अन्तर्लीन हो जाते। ऐसे प्रसंगों में अनेक देव, पिशाच, क्रूर पशु एवं हिंसक मनुष्य उन पर प्राणान्तक बाक्रमण करते, कोई सहज स्वभाव के कारण, कोई किसी देष के कारण, और जब तितिक्षा का प्रसंग महावीर के समक्ष आता, तो वे उन उपसर्गों में कितने शान्त, प्रसन्न
और अन्तर्लीन रहते थे, यह तो पूर्व की घटनाओं से स्पष्ट हो ही जाता है। किन्तु इतने उप उपसर्ग सहते हुए भी उनकी साधना अभी तक सिद्धि के द्वार तक नहीं पहुंची । कई कठोर परीक्षाएं हो जाने के बाद भी एक उग्रतम अग्निपरीक्षा का प्रसंग पुनः उनके साधना काल के ग्यारहवें वर्ष में आया । एक ही रात में इतने हृदयद्रावक व प्राणघातक कष्टों का आक्रमण देखकर योद्धाओं का वज-हृदय भी दहल जाता है, किन्तु इस परमयोगी का तो रोम भी प्रकम्पित नहीं हुमा।
गौशालक की बला से मुक्त होकर श्रमण महावीर ने विविध प्रकार के तप करते हुए श्रावस्ती में वर्षावास किया । यहां पर ध्यान व योग की अनेक प्रक्रियाओं द्वारा साधना को और प्रखर बनाया । चातुर्मासोपरान्त शीतकाल की कठोर सर्दी में प्रभु ने भद्रा, महाभद्रा तथा सर्वतोभद्र प्रतिमाओं की कठोर तपश्चरण की विधि स्वीकार की, और साथ ही ध्यान की श्रेष्ठतम श्रेणो पर आरूढ़ रहने लगे। तभी का यह एक प्रसंग है
तीन दिन का उपवास करके श्रमण महावीर पेढाल-उद्यान' में कायोत्सर्ग करके खड़े थे और उत्कृष्ट ध्यान-प्रतिमा में लीन थे। उनका तन कुछ आगे की ओर झुका हुआ था, एक अचित्त पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि टिकी थी । तन, मन और प्राण स्थिर थे, और वे अकम्प वनसंकल्प लिये ध्यानलीन थे। इस अपूर्व ध्यानलीनता को देखकर देवराज इन्द्र भी गद्गद हो गये और प्रमोद के साथ उनके मुंह से निकल पड़ा-"आज संसार में ध्यान, धीरता और तितिक्षा में श्रमण वर्धमान की तुलना करने वाला कोई पुरुष नहीं है । सुमेरु से भी अधिक उनकी निश्चलता को मनुष्य तो क्या, कोई देव और दानव भी भंग नहीं कर सकता । धन्य है ऐसे महाप्राण अध्यात्मयोगी को।" इतना कहते-कहते भक्तिबश देवराज इन्द्र का मस्तक झुक गया।
१ अनार्य-बहुल हदभूमि के निकट पेडाल ग्राम पा, उसी के बाहर पा यह उचान ।