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१६ | तीर्थंकर महावीर
हम यह तो नहीं कह सकते कि गौशालक सिर्फ पेट भरने के लिए ही श्रमण महावीर के साथ-साथ घूमा हो, चूंकि कष्टों के, यातानाओं के विकट प्रसंगों पर भी भगवान् महावीर का साथ छोड़कर वह नहीं भागा। उसने श्रमण महावीर में उत्कट त्याग, तप, निस्पृहता, सहिष्णुता तथा साथ ही विभिन्न प्रकार की दिव्यविभूतियों के दर्शन किये, उनके साथ उसका प्रलोभन हो, या आकर्षण, और कुछ भी कारण हो, वह प्रभु का पल्ला पकड़े रहा। हाँ, यह भी स्पष्ट ही है कि वह मुंहफट, उच्छृखल एवं क्रोधी स्वभाव का था। उसका हृदय संशयशील, शरारती एवं कुतूहलाप्रय भी था, इस प्रकार के अनेक प्रसंग श्रमण महावीर के साथ भी आये, पर, श्रमण महावीर उसकी तमाम दुष्टताओं को, अवहेलनाओं को उपेक्षित करते गये । उसके संग संकट उठाकर भी कभी उन्होंने क्षोभ अनुभव नहीं किया। समयसमय पर प्रभु महावीर ने गौशालक के समक्ष कुछ ऐसी भविष्यवाणियाँ भी की, जो अक्षरशः सत्य तो होनी ही थीं पर उससे गोशालक को लाभ के बजाय हानि ही हुई। वह प्रारम्भ में किस सिद्धान्त का था, यह उसके व्यवहार से कोई पता नहीं चलता, पर इन भविष्यवाणियों को सत्य होते देखकर नियतिवाद में उसका दृढ़ विश्वास होता गया। उसने यह धारणा बना ली-संसार में जो भी कुछ होने वाला है, वह सब पहले ही निश्चित है (तभी तो ज्ञानी उनके विषय में भविष्य-कथन कर सकता है) और उसे ज्ञानबल से जाना जा सकता है।
भगवान् महावीर के अपूर्व ज्ञानबल (भविष्यकथनशक्ति), तप एवं ध्यान के कारण देवों की पूज्यता तथा कुछ विशिष्ट लब्धियां (तेजोशीतल लेश्या आदि) देख कर गौशालक के मन में प्रारम्भ में श्रद्धा बनी होगी, आगे चलकर स्वयं भी महावीर जैसा विभूतिसम्पन्न बनने के स्वप्न देखने लगा। जब तेजोलेश्या की साधना-विधि उसने महावीर से जान ली तब तो जैसे चींटी को पर आ गये। वह उतावला हो गया, उस अद्भुत एवं चमत्कारी शक्ति को प्राप्त करने के लिए। इन्हीं सब भावनाओं के वेग ने गौशालक को महावीर से अलग होने को प्रेरित किया। उसने नियतिवाद का बहाना ढूंढा, प्रभु महावीर ने जब एक तिल में उत्पन्न सात तिल की बात कही और वह सत्य सिद्ध हुई तो गौशालक बोला-'इसका अर्थ है सभी जीव इसी प्रकार मरकर पुन: अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं ।' प्रभु महावीर ने गौशालक की इस मिथ्या धारणा का निरसन किया होगा और तब गौशालक को प्रभु महावीर से अलग होने का सीधा बहाना मिल गया। वह भगवान का साथ छोड़कर श्रावस्ती को ओर चला गया।'
१ (क) घटनावर्ष वि. पू. ५०२
(ख) भगवतीसूत्र १३ । (ग) विषष्टिः पर्व १०, सर्ग ।।