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साधना के महापथ पर |६३ किसी भी यात्री के पैरों के तले दबकर रौंदा जाय। उसकी इसी अनिश्चित जीवन-लीला को देखकर कुतूहलवश गौशालक ने भगवान् महावीर से पूछ लिया"भंते ! यह तिल-क्षुप (पौधा) अभी तो बड़ा सुन्दर दीख रहा है, इस पर सात फूल भी लगे हैं, पर क्या इसमें तिल भी पैदा होंगे ?"
श्रमण महावीर अपनी गजगति से गमन कर रहे थे। उनकी दृष्टि तो सिर्फ आगे के पथ पर ही थी, अगल-बगल झांकना तो गतिहीनता है। गौशालक के प्रश्न को सुनकर वे रुके, तिल-क्षुप की ओर संकेत कर बोले-"गौशालक ! इसमें क्या आश्चर्य की बात है ? जन्म-मरण की लीला तो अविरल-प्रतिपल चल ही रही है। सातों फूलों के जीव इस तिल की एक ही फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न होंगे—यह तो प्रकृति का क्रम है- अगम्य होते हुये भी सहज !'
गौशालक हृदय से संशयशील था। कुतुहल और संशय से प्रेरित हो पीछे से उसने उस नन्हें से पौधे को उखाड़कर वहीं डाल दिया ।
श्रमण महावीर आगे बढ़ते जा रहे थे। गोशालक पीछे से दौड़कर आया। कूर्मग्राम की वृक्षावलियां भी तब तक दिखाई पड़ने लग गई थीं। वहीं एक ओर एक तापस, जिसका नाम वंश्यायन था, धूप में खड़ा था। वह सिर नीचा लटकाये, दोनों हाथ सूर्य के सामने ऊँचे उठाये तपस्या कर रहा था। उसकी लम्बी-लम्बी जटाएं धरती को छू रही थीं जैसे बड़ की शाखाएं हों। जटा से जूए भूमि पर गिरकर मारे धूप के अकुला रही थीं । तपस्वी उन जूओं को उठाकर फिर से अपने सिर में डाल रहा था, ताकि कड़ी धूप के कारण उनकी हत्या न हो जाय ।
गौशालक को यह दृश्य बड़ा ही विचित्र लगा। उसने अमण महावीर को अनेक प्रकार की कठोर तपस्याएं करते देखा था, पर ऐसा विचित्र तप कभी नहीं देखा, इसलिए गौशालक को कुतूहल हुआ। वह मुंहफट तो था ही, बोलने में भी असभ्य, लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ ! फिर अपने ज्ञान और साधना का गर्व भी था उसे ! तिरस्कार के स्वर में वह बोला-"अरे ! अरे ! यह क्या तमाशा कर रहा है ? तू कोई तापस है, खड़ा-खड़ा ध्यान कर रहा है या जूओं को बीन रहा है? ये जूए ही तेरी मेहमान हैं, तू इन जूओं का शय्यातर (आश्रय-केन्द्र) ही लगता है, जो बार-बार उठाकर इन्हें अपनी जटाओं में विराजमान कर रहा है ?"
गौशालक का कटु आक्षेप सुनकर भी वैश्यायन चुप रहा। उत्तर नहीं पाकर गौशालक को फिर जोश आया और दूसरी बार कुछ जोर से, कुछ और कठोर शब्दों में पुकारा । बार-बार के वचन-प्रहार से वापस का तामस बाग उठा । वह तिलमिला