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साधना के महापथ पर | ७३ पर-दुःखकातर महावीर एक दिन किसी से कहे बिना ही मोराकसग्निवेश से आगे वाचाला के पथ पर चल पड़े।
इस घटना ने महावीर की कठोर सत्यनिष्ठा पर अहिंसा व करुणा का मृदुमधुर अमृतलेप चढ़ा दिया ।
अहिंसा का अमृतयोग
(नाग को प्रबोध) __ भगवान महावीर का साधनाकाल क्षमा, सहिष्णुता, स्थितप्रज्ञता, निस्पृहता, सत्य एवं अहिंसा के विविध प्रयोगों की एक विचित्र प्रयोगभूमि रही है। मोराकसनिवेश से उत्तर-वाचाला की ओर उनका प्रयाण---अहिंमा के अमृत-प्रयोग का एक इतिहास-प्रसिद्ध उदाहरण बन गया है।
____ भगवान महावीर दक्षिण-वाचाला से होकर उत्तर-वाचाला नामक सन्निवेश को जा रहे थे। बीच में सुवर्णवालुका नाम की छोटी नदी थी। इसी नदी तट पर झाड़ी में उलझकर कंधों पर टिके देवदूष्य वस्त्र का अर्ध पट गिर गया था। उपेक्षाभाव के साथ वे आगे चल पड़े । इसके पश्चात् महावीर ने कभी वस्त्र धारण नहीं किया।
उत्तर-वाचाला जाने के लिये महावीर ने एक सोधा मार्ग पकड़ा । वह कनकखल नामक आश्रमपद के बीच से जाता था । श्रमण महावीर इस मार्ग पर कुछ ही आगे बढ़े थे कि पीछे से जंगल में घूमते हुये ग्वाल-वालों की भयभरी पुकार सुनाई दी-"देवार्य ! रुक जाओ ! यह मार्ग बड़ा विकट और भयावह है, इस रास्ते में एक काला नाग रहता है, जो दृष्टिविप है, अपनी विष-ज्वालाओं से उसने अगणित राहगीरों को भस्मसात् कर डाला, हजारों पेड़, पौधे और लतायें उसकी विषली फकारों से जलकर राख हो गई । आप इस मार्ग मे मत जाइये । आश्रम से बाहर
१ यह भी कहा जाता है कि सिद्धार्थदेव ने महावीर के मुख से अनेक भविष्यवाणियां
करवाई, कई गुप्त रहस्य खोले .. जिससे साधारण जनता महावीर के प्रति आकृष्ट हो गई और वहां के निवासी अच्छन्दक ज्योतिषियों का प्रभाव कम हो गया, उनके पाखण्डों की पोल खुलने लग गई; जिससे घबराकर वे महावीर
के चरणों में आये। २ घटना वर्ष वि० पू० ५०६ । विषष्टि० १०१३