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साधना के महापथ पर | ७५
कोधाविष्ट नागराज का तीसरा आक्रमण भी निष्फल गया। उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा, जब देखा, अंगूठे पर जहाँ डंक मारा है, वहां से तो दूध-सी श्वेत-रक्त की धारा बह रही है। जैसे भूख से छटपटाता बालक झंझलाकर मां के स्तन पर दांत मारता है और उस स्तन में से श्वेत-मधुर दुग्ध-धारा फूट आती है-वैसा ही दृश्य नागराज की आंखों के सामने नाचने लगा। जैसे महावीर का अनन्त वात्सल्य (मातृत्व) उस अबोध नागशिशु को दुग्धपान कराने मचल रहा है। तीव्र विष के बदले मधुर दुग्धधारा को देखकर नागराज चकित-भ्रमिन-सा होकर बार-बार उस दिव्यपुरुष की ओर देखने लगा। उसने देखा-तीन-तीन बार तीव्र डंक मारने पर भी इस दिव्यपुरुष की मुखमुद्रा वैसी ही शान्त, स्थिर और प्रशमरस से परिपूर्ण है। उसकी मुखाकृति से शान्ति का मधुर रस टपक रहा है । बार-बार देखने पर नागराज के संतप्त मन को अपूर्व शान्ति, अद्भुत शीतलता का अनुभव हो रहा था। वह विचारों की गहराई में डूब गया 'आखिर यह दिव्य पुरुष है कौन ?'
'चंडकौशिक ! समझो ! समझो ! अब शान्त हो जाओ! अपना क्रोध शान्त करो !" महावीर ने ध्यान समाप्त कर अमृतभरी दृष्टि से नागराज की ओर देख कर कहा।
प्रभु के वचनामृत सुनकर नागराज का क्रोध पानी-पानी हो गया। वह मोचने लगा-"चंडकौशिक ?" मुझे आज तक किसी ने इस नाम से नहीं पुकारा । नाम तो परिचित सा लग रहा है", वह विचारों में गहरा उतरा, उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। पूर्व जीवन की घटनाएँ चलचित्र की भाँति उसकी स्मृतियों में छविमान हो उठीं।
अनेक जन्म पूर्व वह गोभद्र नामक एक तपस्वी श्रमण था । एक-एक माम का उपवास करता था । एकबार गोभद्र श्रमण भिक्षा के लिये जा रहा था, मार्ग में उसके पैर के नीचे एक मेंढकी आ गई और दबकर मर गई । तपस्वी गुरु के पीछे उनका एक सरल स्वभावी शिप्य चल रहा था । उसने गुरु से मेंढकी की हिंसा हुई देखी और देखा कि गुरु के मन पर उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है, तो उसे लगा, शायद गुरुजी को पता नहीं चला है। उसने विनयपूर्वक कहा....."गुरुदेव ! आपश्री के पैर से एक मेंढकी की हिंसा हुई लगती है, कृपया प्रायश्चित्त ले लें"हितबुद्धि के साथ सरलतापूर्वक कही गई बात मुनकर गुरुजी क्रोध में लाल-पीले हो गये।
लाल-लाल आंखों से शिष्य की ओर देखते हुये कहा-'क्या मार्ग में मरी पड़ी सभी पेंढकियां मैंने ही मारी हैं ? मूर्ख ; गुरु की आशातना करता है-'