________________
साधना के महापथ पर | ध्यानयोगी महाश्रमण की स्थितप्रज्ञता की अग्नि-परीक्षा तो इससे भी आगे हुई जब कटपूतना नामकी राक्षसी ने उन्हें प्राणान्तक कष्ट दिये।
प्रभु महावीर शालिशीर्ष नगर के बाहर उद्यान में कायोत्सर्ग करके खड़े थे। माघ का महीना था। रोम-रोम कंपा देने वाली ठंडी हवाएं और एकांत वन ! उस समय कटपूतना नामक व्यन्तर-कन्या उधर आई । प्रभु को ध्यानस्थ देखकर उसके मन में पूर्वजन्म का द्वेष जाग उठा । व्यन्तर-कन्या ने परिव्राजिका का विकराल रूप बनाया। बिखरी हुई जटाओं में बर्फ-सा शीतल पानी भरकर प्रभु के शरीर पर बरसाने लगी। भयंकर अट्टहास करती हुई वह उनके कन्धों पर खड़ी हुई और बर्फीली तेज हवाएं चलाकर वातावरण को शीतलता के शन्यबिन्दु से भी नीचे ला दिया। कड़कड़ाती सर्दी में बर्फ से भी ठण्डी फुहारें शरीर पर गिरें और फिर तेज बर्फीली हवाएं चलें- उस असाधारण शीत में-जब पानी भी जमकर बर्फ बन जाता हो, मनुष्य का रक्त नसों में जम जाय और वह तुरन्त समाप्त हो जाय, यह सामान्य बात थी। किन्तु प्रमु महावीर उस भीषण उपसर्ग में भी अपने ध्यानयोग में अविचल और शान्त रहे । धैर्य और मनोविशुद्धि की उस उत्कृष्ट स्थिति में उन्हें 'लोकावधिज्ञान' उत्पन्न हुआ। सच ही अग्नि की ज्वालाओं में पड़कर स्वर्ण की कांति अधिक ही निखरती है। उपसर्गों की अग्नि ने प्रभु महावीर के तेज को अधिक निखार दिया। उनके अविचल धैर्य, साहस और अभंग समाधिभाव के समक्ष राक्षसी का क्रोध हार गया । वह चरणों में विनत हो अपराध के लिए क्षमा मांगने लगी।
कष्टों की कसौटी पर साधना काल में श्रमण महावीर को विविध यातनाओं और उपसों का सामना करना पड़ रहा था। सामान्य मनुष्य तो कब का ही बवराकर उनसे किनारा कर जाता, पर, श्रमण वर्धमान तो वीर ही नहीं, महावीर थे । तितिक्षा उनका परम धर्म था । कष्टों को वे कसौटी मानते थे और उन पर स्वर्ण की भांति अपने जीवन को चढ़ा देते थे । बहुत बार प्राणान्तक कष्ट भी आये, अधिकतर अपरिचित व्यक्तियों द्वारा; पर महावीर उनमे बचने की चेष्टा करने के बजाय सीना तानकर उनके समक्ष खड़े हो जाते, उपसर्गों में जूझते रहते एक अपराजेय योद्धा की भांति । कभी-कभी ऐसा भी होता उपसर्ग अपनी चरम विकटता पर पहुंच रहा होता-तभी कोई पूर्व
१ घटना समय वि. पू. ५०६ गीतऋतु (साधना काल का छठा वर्ष) । इस उपसर्ग के समय
गौशालक के साथ में नहीं था।