________________
साधना के महापथ पर | ८७
अपकृत्य पर पश्चात्ताप होने लगा। आंखों से आंसू बहाते हुए वह प्रभु के चरणों में गिर पड़ा--- "प्रभो ! क्षमा कीजिये । आपको नहीं पहचानने से यह घोर अपराध हो गया है। हम बड़े अधम और नीच हैं, जो आप जैसे महापुरुष को काट देने से नहीं चूके ।"
क्षमामूर्ति महावीर तो पीड़ा के समय भी प्रशांत और प्रसन्न थे, अब भी उसी प्रशांत मुद्रा में उन्होंने मेघ को क्षमादान भी कर दिया। प्रभु के इस क्षमादान से मेघ के अन्तर्ह दय में अवश्य ही एक प्रकाश-किरण जगी होगी और उसने दुलार्म त्यागकर प्रभु के सत्संग का लाभ उठाया-यह सहज ही कल्पना की जा सकती है।
प्रभ के साधना-काल में इस प्रकार की घटनाओं की कई पुनरावृत्तियाँ हुई। लोगों के न पहचानने और उनके सदा मोन धारण किये रहने के कारण कई बार उन्हें गुप्तचर समझकर संत्रास दिया गया।
साधना-काल के छठे वर्ष में श्रमण महावीर विहार करते हुये कपीयसन्निवेश' गये । वहाँ पर भी आरक्षकों ने आगका परिचय पूछा, पर मौन धारण किये होने से उन्होंने प्रभु को कारागार में बंद कर दिया। एक श्रमण को कारागार में बंदी बनाने की चर्चा सन्निवेश में फैली तो वहां रहने वाली दो परिवाजिकाओं (विजया और प्रगल्भा) को बड़ा धक्का पहुंचा, वे तुरन्त राजसभा में आई, श्रमण वर्धमान को वहाँ देखकर उन्होंने राजपुरुषों को खूब आड़े हाथों लिया - "कसे राजपुरुष हो तुम ! तुम्हें चोर और साहूकार की भी पहचान नहीं ? ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र श्रमण महावीर हैं, इन्हें कप्ट दे रहे हो ? यदि कहीं देवराज इन्द्र कुपित हो गये तो तुम्हारी क्या दशा होगी ?"
श्रमण महावीर का परिचय जानकर राजपुरुष तुरन्त उनके चरणों में गिरे और विनयपूर्वक क्षमा याचना करने लगे। प्रभु ने हाथ ऊपर उठाकर अभयमुद्रा के साथ सबको अभयदान दिया ।२
प्रभु महावीर जान-बूझकर अधिकतर ऐसे अपरिचित क्षेत्रों में जाते, जहाँ कष्टों एवं यातनाओं के उत्पीड़न में वे अपने को अधिक-से-अधिक प्रसन्न शान्त और स्थिर रख सकें। सोना जैसे अग्नि की ज्वालाओं से अधिक निखरता है, वसे ही श्रमण महावीर की साधना कष्टों की अग्नि में प्रतिपल निखर रही थी; अधिक
१ घटना वर्ष वि. पू. ५०८-५०७ २ घटना वर्ष वि. पू. ५०७-५०६ (साधना काल का छठा वर्ष)