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साधना के महापथ पर | ०५
सारंभ और सपरिग्रह श्रमणों से मेरा पाला पड़ गया, ढेर सारे वस्त्र, उपकरण रखते हुए भी अपने को निग्रन्थ बताने का ढोंग रचा रखा है उन्होंने !"
सत्य के परम आराधक महावीर ने कहा-"गौशालक, तुम मिथ्याभ्रम में हो। पार्थापत्य अनगार हैं और सच्चे श्रमण हैं । तुमने उनका अनादर किया है।"
महावीर के मुख से अन्य परम्परा के श्रमणों की प्रशंसा सुनकर अपने आपको सत्य का ठेकेदार समझनेवाले गौशालक के मिथ्या अहंकार को जरूर एक चोट पहुंची होगी, भ्रम का पर्दा उसकी आँखों पर से हटा या नहीं, पर सत्य की एक दूसरी किरण का अनुभव तो अवश्य ही हुआ होगा-महावीर की समन्वय-प्रधान सत्यप्रज्ञा के द्वारा ।
अभूतपूर्व आत्म-गुप्ति दीक्षा के पश्चात श्रमण महावीर ने एक वज्रसंकल्प लिया था कि वे कभी किसी को अपना पूर्व-परिचय नहीं देंगे । जनता के समक्ष वे सदा एक श्रमण, मिक्षक और साधक के रूप में ही उपस्थित होते थे, न कि राजकुमार वर्धमान के रूप में। वैशाली, कौशाम्बी और मगध जैसे विशाल साम्राज्यों से उनके गहिजीवन के घनिष्ट सम्बन्ध थे, पर नि:स्पृह क्षमावीर श्रमण ने कहीं भी विकट-से-विकट संकट एवं उपसर्ग के समय भी उन सम्बन्धों की चर्चा करके संकट से छूटने की चेष्टा नहीं की। कष्टों और उपसों को तो वे निमंत्रण देते थे, फिर स्वतः आये कष्टों से किनाराकसी करने की तो बात ही क्या ? उनका आदर्श था-"आयगुत्ते सया जये" निरन्तर यतना से युक्त रहना, और आत्म गुप्त, अपने गौरव को, अपने महत्व को
और अपने प्रभाव को भीतर ही गुप्त रखना । आत्मगुप्ति की इस उग्रतम साधना में कभी-कभी तो प्रभु को मारणान्तिक वेदनाएं भी सहनी पड़ीं, फांसी के फंदे भी गले में लटकवा दिये गये-पर फिर भी उन्होंने स्वयं के मुख से स्वयं का कोई पूर्व परिचय नही दिया। उनका परिचय सिर्फ यही था---मैं एक श्रमण हूं, भिक्षु हूं, साधक हं !२
विहार करते हुए प्रभु एक बार चोराकसन्निवेश में गये। उन दिनों सीमांत राज्यों में परस्पर कलह और युद्ध का वातावरण चल रहा था। एक-दूसरे पर शत्र
१ घटना समय वि. पू. ५०६-५०८ शीतऋतु। २ अहमंसि नि भिक्षु । -आचारांग २०१२ । ३ पूर्वबिहार (प्राचीन अंग-जनपद)।