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साधना के महापय पर | ८३ ही अपना धर्माचार्य मान लिया है, आप भी मुझे अपना शिष्य मान लीजिये ।' गौशालक को बात का महावीर ने कोई प्रतिरोध नहीं किया, "मौनं स्वीकृतिलक्षणं" मानकर गौशालक अब महावीर के साथ-साथ घूमने लगा।'
खीर धल में मिल गई
कोल्लाकसन्निवेश से महावीर सुवर्णखल की ओर जा रहे थे, गौशालक भी उनके साथ पीछ-पीछे चल रहा था। रास्ते में एक स्थान पर ग्वालों की टोली जमी हुई थी। गौशालक ने उन्सुकतावश उधर देखा, हंडिया में वे कुछ पका रहे थे। पूछा
- ''भाई ! हंडिया में क्या पका रहे हो?" ग्वालों ने गौशालक की ओर जरा तिरछी नजर से देखा और बोले- “खीर ।" नाम सुनते ही गौशालक के मुंह में पानी छूट आया, उसने प्रभु से कहा--- "देवार्य ! ग्वाले खीर पका रहे हैं, जरा ठहर जाइये, हम भी खीर खा कर चलेंगे।"
भगवान ने कहा-"यह खीर पकेगी ही नहीं। बीच ही में हंडिया फट जायेगी, और खीर मिट्टी में मिल जायेगी।"
गौशालक ने ग्वालों को सावधान करते हुये कहा-"सुनते हो ! ये त्रिकालज्ञानी देवार्य कहते हैं, यह इंडिया फट जायेगी और खीर मिट्टी में मिल जायेगी।"
ग्वालों ने गौशालक की ओर तिरस्कार भरी आंखें तरेरते हुए कहा-"देखते हैं कैसे फटेगी हंडिया !" उन्होंने बांस की खपाटियों से हंडिया को कस कर बांध दिया, और चारों ओर से घेर कर बैठ गये।
प्रभु महावीर आगे चले गये थे, पर गौशालक खीर की लालसा से वहीं रुका रहा । इंडिया दूध से भरी थी और चावल भी मात्रा से अधिक थे। जब दूध उबला, चावल फूले नो हंडिया तड़ाक से दो टुकड़े हो गई, खीर धूल में मिल गई और साथ ही गोशालक की आशा भी। वह बहुत निराश हुआ और यह कहते हुये आगे चला गया "होनहार किसी भी उपाय से टलती नहीं ।"२
गोशालक श्रमण महावीर के साथ-साथ घूमता रहा। जहां भी जाता, लोगों में स्वयं को देवार्य का शिष्य बताता, पर उसका आचरण इतना अभद्र और अविवेक
१ घटना वर्ष वि. पू. ५१० २ घटना वर्ष वही, (शीतऋतु)