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साधना के महापथ पर |
श्रमण महावीर की साधना का दूसरा वर्ष ही चल रहा था कि दुष्ट गौशालक उनके संपर्क में आया और निरन्तर छह वर्ष तक उनको अनेक प्रकार के पास, पीड़ाएं और कष्ट पहुंचाता रहा । गोशालक का संपर्क महावीर के जीवन में सदा त्रासदायी रहा। तीर्थकर काल में तो वह उनकी मृत्यु का परवाना लेकर एक दुष्ट प्रतिद्वन्द्वी की भांति भी सामने आ डटा। पर क्षमावीर महावीर सदा ही उसे क्षमा, अभय और शरण देते रहे। चन्दन की भांति घिसनेवाले को भी वे सुगन्ध और शीतलता से प्रीणित करते रहे।
नालन्दा, राजगृह का उपनगर था। वर्षाऋतु के प्रारम्भ में श्रमण महावीर वहीं आकर चार्तुमास बिताने के लिये किसी एकांत शून्यस्थान की खोज करने लगे । एक तंतुवायशाला (जुलाहे की दुकान या कारखाना, उन्हें मिल गई और वे वहीं चातुर्मास के लिये ठहर गये। इसी तंतुवायशाला में एक ओर मखजातीय (मस्करी--एकदन्डी तापस) युवा भिक्षुक भी ठहरा हुआ था। जिसका नाम था गौशालक ।' गौशालक स्वभाव से उच्छृखल, कुतूहलप्रिय और मुंहफट तो था ही, साथ ही रसलोलुपी और झगड़ालू भी था।
श्रमण महावीर इस चातुर्मास में एक-एक मास का तप करते थे। उनके ध्यान, तप और अन्य दिव्य विभूतियों को देखकर गौशालक उनकी ओर आकृष्ट हो गया। प्रभु जब मासक्षपण का पारणा लेने बस्ती में जाते तो गौशालक उनके पास आकर प्रार्थना करता कि--"प्रभु, मैं भी आपका शिष्य बनना चाहता हूं।"
परम्परागत अनुश्रुतियों के अनुसार गौशालक किसी डाकौत का पुत्र था, वह लोगों का मनोरंजन करके अथवा शनि आदि ग्रहों की बलिपूजा आदि लेकर अपनी आजीविका चलाता था। किन्तु भगवती-मूत्र के कुछ उल्लेखों एवं आजीवक सम्प्रदाय पर हुये अब तक के अनुसंधानों से उक्त अनुश्रुतियों की पुष्टि नहीं होती। इतिहासकारों ने उसे आजीवक संप्रदाय का प्रवर्तक तो नहीं, किन्तु एक प्रभावशाली आचार्य माना है। श्रमण महावीर के संपर्क में आया तब तक वह एक सामान्य भिक्षुक ही था, किन्तु बाद में भगवान महावीर के साथ में रहकर उसने कुछ विभूतियां व तेजोलेश्या जैसी लब्धि प्राप्त कर ली और पश्चात् पापित्य दिशाचरों के संपर्क में रहकर निमित्तशास्त्र भी पढ़ा, इन शक्तियों के बल पर वह आगे जाकर स्वयं को आजीवक संप्रदाय का तीर्थकर भी घोषित करने लग गया था।