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८६ | तीर्थंकर महावीर
राजा का भय छाया हुआ था । इसलिये एक सीमांत से दूसरे सीमांत में प्रवेश करने पर बड़ी छानबीन और तलाशी ली जाती थी ।
चोराकसन्निवेश में आने पर आरक्षकों ने महावीर का परिचय पूछा । वे श्रमण के रूप में तो उपस्थित थे ही, इसके सिवा अपना और क्या परिचय देते । वे मौन रहे । गुरु को मीन देखकर शिष्य ( ? ) गौशालक भी चुप रहा । आरक्षकों ने गुप्तचर समझकर उन्हें पकड़ लिया और अनेक प्रकार की यातनाएं दीं। महावीर ने अपने बचाव के लिये कोई भी प्रतिकार नहीं किया, गौशालक ने भी कोई सफाई नहीं दी । तब दोनों को रस्से से बांधकर कुएं में उतारा गया और बार-बार डुबकियाँ लगवाई गई । फिर भी दोनों ने ही अपना मौन नहीं तोड़ा। लोग स्तब्ध थे कि इतनी कठोर यन्त्रणा पाने पर भी ये चुप हैं, कैसे हैं ये गुप्तचर ?" गुप्तचरों की चर्चा सुनकर वहाँ रहने वाली दो परिव्राजिकाएँ – सोमा और जयन्ती' उन्हें देखने आई। देखते ही वे श्रमण महावीर को पहचान गईं । आरक्षकों को डाँटते हुये कहा - " अरे ! तुम क्या अन्याय कर रहे हो ? ये तो प्रभु वर्धमान हैं, महाराज सिद्धार्थ के पुत्र ! गृहत्याग करके मौन साधना कर रहे हैं।"
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प्रभु का परिचय पाते ही आरक्षकों को पसीना छूट गया। वे काँपते हुये उनके चरणों में गिर पड़े और अपराध के लिये क्षमा मांगने लगे ।"
आत्मगुप्ति की इस कठोरचर्या के कारण भगवान महावीर के जीवन में अनेक विकट संकट आये, पर वे अपने संकल्प से एक तिलभर भी विचलित नही हुए ।
चीराक सन्निवेश से प्रभु एकबार कलंबुका सन्निवेश गये। वहां के अधिकारी थं मेघ और कालहस्ती । यद्यपि वे वहाँ के जमींदार थे, पर पास-पड़ोस के राज्यों में जाकर डाका भी डालते थे । कलंबुका के विकट जनशून्य मार्ग में महावीर की कालहस्ती से भेंट हो गई। साथ में गोशालक भी था । कालहस्ती ने पूछा - "तुम कौन हो ?" महावीर मौन रहे । कालहस्ती को आशंका हुई कहीं ये गुप्तचर तो नहीं हैं ? उसने दोनों को बड़ी निर्दयता से पोटा और फिर बाँधकर मेघ के पास भेज दिया ।
मेघ ने महावीर को क्षत्रियकुण्ड में सिद्धार्थ राजा के घर पर देखा था । उसने पहचान लिया । इस निर्मम पिटाई और क्रूर बंधन को देख कर उसे अपने
१ ये दोनों परिव्राजिकाएं निमित्तशास्त्री उत्पल की बहनें थीं ।
२ घटना वर्ष वि. पू. ५०९-५०८ ग्रीष्मऋतु ।