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१०| तीर्थकर महावीर परिचित व्यक्ति उपस्थित हो जाता, जनता को प्रभु का परिचय देता, उपसर्ग टल जाता और आक्रमणकारी विनय के साथ चरणों में झुक जाता। यह स्थिति उनके हित में होते हुए भी श्रमण महावीर ऐसे प्रसंगों पर प्रसन्नता का अनुभव नहीं करते । वे तो उपसर्ग और पीड़ा की उस चरमस्थिति को छना चाहते थे-जहां उनकी तितिक्षा और सहिष्णुता की, समता और स्थितप्रज्ञता की अन्तिम कसोटी होती। वे आत्मा के साथ पूर्व-बद्ध असातावेदनीय कर्मों की जटिल तथा धनी स्थिति को अनुभव कर रहे थे, और उनकी तीन निर्जरा के लिए ध्यानयोग के साथ परम तितिक्षा और सहिष्णुता का ही एकमात्र मार्ग उनके समक्ष था, इसलिए बार-बार वे स्वयं को कष्टों की कसौटी पर कसना चाहते थे।
जब उन्होंने देखा कि मगध व अंग आदि प्रदेशों में अब बहुत से लोग उनको पहचानने लगे हैं, इसलिए उपसर्ग कम और पूजा व सम्मान अधिक होता है, तो उन्होंने संकल्प किया कि वे इन प्रदेशों को छोड़कर कुछ समय के लिए अपरिचित प्रदेशों में विहार करेंगे-जहां के लोग उनसे सर्वथा अपरिचित होंगे। इसी निश्चय के साथ साधना-काल के पांचवे वर्ष में राढ़भूमि की ओर उन्होंने विहार कर दिया। गौशालक भी तब साथ में ही था। इस प्रदेश के लोग श्रमण के आचार-विचार से तो क्या, उनकी वेश-भूषा से भी सर्वथा अनभिज्ञ थे। फिर स्वभाव से वे क्रूर, दुष्ट और हिंसकवृत्ति के भी थे। इसलिए श्रमण महावीर को इस प्रदेश में अत्यधिक कष्टों का सामना करना पड़ा। इन प्रदेशों में श्रमण महावीर ने साधना-काल में दो बार विहार किया। और दोनों ही बार प्राणान्तक पीड़ाओं को झंलते हुए वे कष्टों की अग्नि में स्वयं को झोंकते गये। इस प्रदेश में महावीर को जो उपसर्ग हुए उनका संक्षिप्त विवरण आचारांगसूत्र में आर्य सुधर्मा ने यों दिया है- "उस प्रदेश के अनार्यलोगों की दृष्टि में महावीर उनके शिकार और उनके मनोरंजन की वस्तु थे। वे नग्न श्रमण को देखकर उन्हें पीटते, गीली बेंतों से उन पर प्रहार करते, जिसके निशान उनकी चमड़ी पर उभर आते । शिकारी कुत्ते उन पर छोड़ देते, जो उनकी पिंडलियों का मांस नोंच लेते, लोग देखते रहते और कुत्तों को भगाने के बजाय तालियां दे-देकर नाचते। कितनी ही बार लोग उनको लकड़ियों, मुटिठयों, भाले की नोकों, पत्थर तथा हड्डियों के खप्परों से पीट-पीट कर शरीर में घाव कर देते, रक्त की धाराएं बहा देते। वे जब ध्यान में स्थिर खड़े रहते तो उन पर धूल बरसाते, शस्त्र से प्रहार कर डालते, धकेल देते और उठाकर गेंद की तरह दूर फेंक देते--महज कुतूहलवश, कि इतना सब होने पर
१ प्रथम बार वि. पू, ५०८ साधना काल के पांचवें वर्ष में, दूसरी बार फिर चार वर्ष बाद
वि. पू. ५०४ में साधना कान के नौवें वर्ष में । इस बिहार में गौशालक पुनः साप रहा।