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७४ | तीथंकर महावीर
बाहर जो मार्ग जाता है उसी से जाइये, भले ही वह लम्बा है, पर निरापद है . इस काले नाग के चक्कर से तो पथ का थोड़ा-सा चक्कर अच्छा है-रुक जाइये, आगे मत जाइये !"
___ ग्वाल-बालों की पुकार में एक छितरा हुआ-सा भय, एक गहरी संवेदना थी, अनजान किन्तु एक साधु-श्रमण के प्रति श्रद्धा और स्नेह का कंपन था । महावीर दो क्षण रुक गये । मुस्कराते हुये उन्होंने ग्वाल-बालों की ओर देखा, अपना अभय सूचक हाथ ऊपर उठाया, जैसे संकेत दे रहे थे; घबराओ मत ! उस विष को जीतने के लिए ही अमृत जा रहा है, आग को बुझाने के लिए ही शीतल जलधारा उस ओर बढ़ रही है।
महावीर के संकेत को शायद ग्वालों ने नहीं समझा। वे तपस्वी की हठवादिता पर कभी झु झला रहे थे और कभी खीझ कर कह रहे थे-"जो अपनी भलाई की बात भी नहीं सुनता उसका बुरा हाल होगा, देख लेना !" उन्हीं में से एक बड़ी उम्र का ग्वाला उन्हें समझा रहा था, "तुम घबराते क्यों हो ! यह श्रमण कोई सिद्धपुरुष लगता है, जरूर नाग-मन्त्र सिद्ध किया हुआ है, आज इस कालिये नाग को कोल डालेगा-देख लेना।"
अभयमूति महावीर धीर-गम्भीर गति से चलते हुये जंगल के बीच नागराज की बांबी के निकट पहुंच गये । पास ही एक फटा हुआ-सा देवालय था, वहीं वे ध्यानमुद्रा में स्थिर हो गये।
जंगल में घूमता हुआ सर्प अपनी बांबी के पास पहुंचा। सामने एक मनुष्य को आंख मू दे निश्चल खड़ा देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । बहुत दिनों के बाद -- इस निर्जनप्रदेश में यह मनप्य दिखाई दिया है, शायद रास्ता भूल गया होगा या मृत्यु ने ही इसे मेरे पास ला खड़ा कर दिया होगा। अपनी विपमयी तीव्र दृष्टि से उसने महावीर की ओर देखा, अग्निपिण्ड से जैसे ज्वालाएं निकलती हैं वैसे ही उसकी विषाक्त आँखों से तीव्र विषमयी ज्वालाएं निकलने लगीं। साधारण मनुष्य तो तत्काल जलकर खाक हो जाता । पर महावीर पर तो कोई प्रभाव नहीं हुआ। नाग ने पुनः सूर्य के समक्ष देखकर तीक्ष्णदृष्टि से महावीर की ओर देखा, इस बार भी उसका प्रभाव खाली गवा । दूसरा प्रयास भी निष्फल ! नाग क्रोध में आग-बबूला हो गया। फन को तानकर पूरी शक्ति के साथ उसने महावीर के अंगूठे पर डंक मारा, और जरा पीछे हट गया कि कहीं यह मूछित होकर मुझ पर ही न गिर पड़े।