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७८ | तीर्थकर महावीर प्रदेशी राजा के मित्र पांच नैयक राजाओं ने प्रभु के दर्शन किये, भक्ति की और अपने भाग्य को सराहते हुये आगे चल पड़े।
सुरभिपुर और राजगृह के बीच में गंगानदी पड़ती थी। महावीर को गंगा पार करने के लिये नाव में बैठना था । नाविक की अनुमति लेकर वे नाव में बैठ गये । अनेक यात्री उस नाव में थे । और उनके बीच खेमिल नामक नैमित्तिक भी बैठा था । नाव कुछ दूर चली कि दाहिनी ओर एक उल्लू बोलने लगा । खेमिल ने यात्रियों को सावधान करते हुये कहा-"आप लोग सावधान होकर अपने-अपने इष्टदेव का स्मरण कीजिये । दायें उल्लू का बोलना बड़ा ही अपशकुन है, लगता है हम सब पर कोई प्राणान्तक कष्ट आने वाला है।"
खेमिल की चेतावनी सुनते ही यात्रियों के चेहरे पीले पड़ गये । तभी सभी की दृष्टि महावीर की ओर गई जो एक कोने में बैठे स्थिर, प्रशांत भाव से ध्यानमग्न थे । खेमिल को घोर अन्धकार में एक आशा की किरण चमकती हुई दिखाई दी, यात्रियों को धीरज बंधाते हुये वह बोला-"संकट तो बहुत बड़ा आने वाला है, लेकिन इस नाव में एक ऐसा महापुरुष भी बैठा है, जिसके असीम पुण्य-प्रताप से हम सब बाल-बाल बच जायेंगे । धीरज रखिये और सभी इस महापुरुप की वंदनास्तुति कीजिये।"
खेमिल की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि नदी में तूफान आ गया । पानी बांसों उछलने लगा, लहरें नाव को यों उछालने लगीं जैसे बालक गेंद को इधरउधर उछालते हों । यात्रियों का हृदय दहल रहा था, भय के कारण कुछ चीखनेचिल्लाने भी लगे, पर खेमिल के कहने से सभी ध्यानस्थ महावीर के चरणों में सिर नवा रहे थे- 'हे प्रभो ! हे महाश्रमण । हमें इस संकट से बचाइये । आप ही हमारे रक्षक है।"
भक्ति में शक्ति का स्रोत छिपा रहता है । जिस महापुरुष का नाम-स्मरण ही मनुष्य को संकटों से मुक्त कर सकता है, उसका सानिध्य संकटों से न बचा पाये, यह कैसे संभव हो सकता है ? श्रमण महावीर के दिव्य प्रभाव से धीरे-धीरे तूफान शान्त हो गया, लहरों का आलोहन कम हुआ और नाव अपनी सहजगति पर आ गई। यात्रियों के जी-में-जी आया । वे प्रभु की बंदना करने लगे। नाव किनारे पहुंची और सभी यात्री कुशल-क्षेमपूर्वक उतरकर अपने-अपने गंतव्य की ओर चल दिये।
गंगा में तूफान उठना और स्वतः शान्त हो जाना एक सहज घटना-सी प्रतीत होती है, किन्तु कथाकार आचार्यों ने इसके पीछे दैविक चमत्कार का प्रभाव भी